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१००. पत्र : सतीशचन्द्र दासगुप्तको

कुमार पार्क,बंगलोर

५ जुलाई, १९२७

प्रिय सतीश बाबू,

आपके दो पत्र मिले। पिछला तो कल ही मिला था ।

[ चरखा संघकी ] परिषद्के कामकाजके विषयमें आपने जो पत्र लिखा था, उसे परिषद् के सामने रखा गया। जमनालालजी और शंकरलाल आपको विस्तारसे सब-कुछ लिखेंगे। मैं पहली बैठकके अलावा और किसीमें शामिल नहीं हुआ और पहली बैठककी भी सिर्फ उद्घाटन-विधि सम्पन्न करके कोई भाषण वगैरह दिये बिना चला आया। मेरा खयाल है, परिषद् ने मुझे तमाम प्रशासनिक कार्योंसे मुक्त करनेका मूल प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है। अध्यक्ष अब भी मैं ही हूँ; लेकिन जमनालालजी परिषद् के कार्यकारी अध्यक्ष बना दिये गये हैं । मेरा खयाल है, यह उत्तम व्यवस्था है । इस तरह में प्रशासनिक मामलोंकी हरएक तफसीलका जायजा लेते रहनेकी परे- शानीसे बच जाऊँगा ।

परिषद्की बैठकें विभिन्न केन्द्रोंमें करनेका आपका सुझाव मान लिया गया है । जैसा कि पहले सोचा गया था, संविधान में पाँच सालतक कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं करना चाहिए। हर साल अधिकारियों, और विशेषकर मन्त्रियोंको बदलते रहना खतरनाक बात है । मन्त्रीको नये-नये सुझाव देकर उसकी सहायता करते रहना चाहिए। लेकिन, हमारी संस्था एक व्यावसायिक संस्था है, इसलिए यदि हम उसे सुदृढ़ नींवपर खड़ा रखना चाहते हैं तो प्रशासनिक नियन्त्रणमें कभी कोई ढील नहीं आनी चाहिए। और खुद मेरा खयाल तो यही है कि शंकरलालसे अधिक चुस्त-दुरुस्त और ईमानदार मन्त्री मिलना असम्भव है ।

हेमप्रभादेवीका ताजा हाल बताते हुए आपने जो पत्र लिखा है, उसपर गम्भीरता से विचार करनेकी जरूरत है। जल्दीमें कुछ न होने दीजिए ।

निर्वाहसे सम्बन्धित सुझावसे तो में स्तम्भित रह गया हूँ । इस प्रश्नको मेरा मन ठीक तरहसे ग्रहण कर सके और इसके विषयमें में शान्तिपूर्वक सोच सकूं, इसके लिए मुझे काफी समय लगेगा। कुछ करनेसे पहले हम दोनोंका मिलना जरूरी है । मान लीजिए, में अगस्तके अन्त या सितम्बरके मध्यतक दक्षिण भारतका दौरा सकुशल पूरा करके छुट्टी पा लेता हूँ, तो क्या आप चाहेंगे कि मैं रुक-रुककर सुविधापूर्वक बंगालका दौरा शुरू कर दूं? मेरे बारेमें चिन्ता मत कीजिए; क्योंकि मैं जल्दीमें कुछ नहीं करूँगा और दौरा करते हुए अपने स्वास्थ्य और शक्तिको तौलता रहूँगा । जिस खतरेको टाला जा सकता हो, वैसा कोई खतरा मैं नहीं उठाना चाहता। राज- गोपालाचारी और गंगाधरराव दोनों इस बातकी पूरी सावधानी बरत रहे हैं कि