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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बेकाम पशुओं, मुख्यतः गायोंके शरण-स्थलोंके रूपमें बहुत बड़ी तादाद में परोपकारी संस्थाएँ चलाई जाती हैं। इन संस्थाओंको पिंजरापोल कहते हैं। जब शुरू-शुरू में ये संस्थाएँ खोली गई थीं तब हम उतने गरीब नहीं थे जितने कि आज हैं । तब इस बातका कोई महत्त्व नहीं था कि उनका संचालन आर्थिक दृष्टिसे लाभप्रद ढंगसे किया जाता है अथवा नहीं। लेकिन आज स्थिति बदल गई है। अब तो ऐसी किसी भी संस्थाके दीर्घ कालतक कायम रहनेकी आशा तबतक नहीं की जा सकती जबतक कि उसे ठोस आर्थिक नींवपर नहीं खड़ा किया जाता । पिंजरापोल दीर्घजीवी तभी हो सकते हैं जब वे आत्म-निर्भर हो जायें । हमने पाया कि अकेले काठियावाड़में इन संस्थाओंको चलानेके लिए प्रतिवर्ष आठ लाख रुपये खर्च किये जाते हैं । फिर भी भारत-भरको सबसे ज्यादा दूध देनेवाली गायोंके इस प्रदेशमें थोड़ी-सी भी अच्छी गायें ढूंढ़ पाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । यह क्षेत्र, जहाँ कभी दूधकी नदियाँ बहती थीं, आज शायद ही गायका थोड़ा भी शुद्ध और स्वास्थ्यवर्द्धक दूध पैदा करता हो । पशु-पालन के लिए चरागाहोंकी इतनी अधिक सुविधा होते हुए भी काठी लोग, जो किसी समय एक योद्धा जातिके रूपमें प्रसिद्ध थे, ठीक पोषक तत्त्वके अभावमें कमजोर होते जा रहे हैं । खेतिहर लोग खेती-बाड़ीके लिए बैल बाहरसे मँगवाते हैं। दूध और घीके उत्पादनमें भैंस गायको मात दे रही है और इसलिए, गायका महत्त्व समाप्त होता जा रहा है । वह समय आ गया है जब देश में मेधावीसे- मेघावी लोगोंको इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समस्याको सुलझानेमें लग जाना चाहिए ।

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि गो-सेवकका काम कसाईके छुरेसे गायकी रक्षातक ही सीमित नहीं है, बल्कि उसे गायोंकी दूध देनेकी क्षमताका जो ह्रास हो रहा है उसे रोककर इस क्षमताको बढ़ाना भी चाहिए। हम कह सकते हैं कि गायोंको कसाईखाने में जानेसे बचानेका सबसे कारगर तरीका उन्हें इतना महंगा बना देना है कि कसाई उन्हें खरीद ही नहीं सके । ऐसा तभी किया जा सकता है जब दुग्धका व्यवसाय करनेवाले या गो-पालककी बही में आमदनीके जरियोंके रूपमें गायको एक ऊँचा स्थान प्राप्त हो सके । भारतमें औसत गायकी उत्पादन क्षमता इतनी गिर गई है कि किसी व्यवसायी आदमीके लिए इस धन्धेको अपनाना कठिन हो गया है । इसलिए इस समस्या- को धार्मिक या राष्ट्रीय आधारपर सुलझानेकी कोशिश करनी है।

इस कामको मौजूदा पिंजरापोल कर सकते हैं। उनके पास पूंजी है, मकान है और सबसे बड़ी बात तो यह कि उन्हें जनताकी सहानुभूति प्राप्त है । आवश्यकता सिर्फ अच्छी व्यवस्था और उद्यमकी है । जहाँ किसी पिंजरापोलके पास सौ या दो सौ बेकाम गाये हों, वहाँ वह ऊपरसे कुछ ऐसी गायें भी रख सकता है जिनका अपना खर्च तो उनसे होनेवाली आमदनीसे चलेगा ही, साथ ही दूसरी गायोंपर खर्च करनेके लिए भी कुछ बच जायेगा । अगर इनमें गायोंको अच्छी तरह रखा जाये और उनका संयोग बराबर अच्छी नस्लोंके साँड़ोंसे ही