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२१७. पत्र : सी० वी० वैद्यको

कुमार पार्क,बंगलोर

२७ जुलाई, १९२७

प्रिय श्री वैद्य,

इस पत्रके लिए मैं आपको धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता । हास्यका पुट देकर आपने इसे बड़ा मजेदार बना दिया है। इसे में पंडित सातवळेकरको नहीं भेज रहा हूँ। इसके बजाय इसके तथ्यों पर, या ज्यादा ठीक शब्दका प्रयोग करूँ तो कहना चाहिए कि आपके मतों पर - क्योंकि किसीके द्वारा बताये तथ्य आखिरकार उसके मत ही तो होते हैं --स्वयं ही मनन कर रहा हूँ ।

जब मैं वकालत करता था, उन दिनों ऐसे न्यायाधीशोंके भाग्यसे मुझे अकसर ईर्ष्या हुआ करती थी जिनके बारेमें में जानता था कि यदि वे ईमानदार होते तो सही निर्णयपर पहुँचने में उन्हें निश्चय ही बहुत मुश्किल पड़ती। लेकिन, इस बातको जानते हुए भी मैंने स्वयं न्यायाधीशकी स्थिति स्वीकार कर ली है; और चूंकि में मूल ग्रंथोंसे अनभिज्ञ हूँ, इसलिए अब वेदोंकी सही व्याख्या या व्यवहार अथवा बहुत पहले हुए अपने पूर्वजोंके आचरणको जाननेकी मैं बड़ी कोशिश कर रहा हूँ। मगर आप ऐसा मत समझिएगा कि बहुत पहले हुए अपने पूर्वजोंके बारेमें सोचते हुए मेरी दृष्टि डार्विनकी तरह बन्दरोंतक जाती है। परस्पर-विरोधी मतोंके दो पाटोंके बीच पड़कर कुचल जानेका तो कोई खतरा मुझे है नहीं; क्योंकि मैं मानता हूँ कि लिखित वेदों- की चाहे जो व्याख्या की जाये अथवा हमारे प्राचीन पूर्वजोंका आचार-व्यवहार चाहे जो रहा हो, हमें तो आधुनिक खोज और स्वयं अपनी अन्तरात्मा के आदेशके अनुसार अपने व्यवहारका नियमन करनेका पूरा अधिकार है ।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत सी० वी० वैद्य

पूना शहर

अंग्रेजी (एस० एन० १२६२१) की माइक्रोफिल्म से ।