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मिशनरियोंके साथ बातचीत

और अवांछनीय बातें दूर हो जाती हैं। मैं उनके विश्वासोंकी ओर कोई ध्यान नहीं देता, उनसे सिर्फ सही काम करने को कहता हूँ। और जिस क्षण वे वैसा करने लगते हैं, उसी क्षण उनका विश्वास भी सही दिशा पकड़ लेता है।

आप सादगी की बात कहते हैं। लेकिन मोटर गाड़ियोंके इस युगमें हम कर भी क्या सकते हैं ? खुद अपनी ही मिसाल लीजिए। आप मोटरगाड़ीके बिना तो यहाँ नहीं आ सकते थे ।

नहीं, मोटर गाड़ी कोई आवश्यक चीज नहीं है । कमसे कम मुझे तो यहाँ आने के लिए उसकी आवश्यकता नहीं थी। अगर ईश्वर चाहता है कि आप उपयोगी काम करें तो आपसे उपयोगी काम करानेका साधन भी वही ढूँढ़ेगा। मोटर गाड़ियाँ हमारे आध्यात्मिक अनुभवका सार तो नहीं हैं । ईसा मसीह या मुहम्मद के समय में तो मोटर गाड़ी नहीं थी । फिर भी अपने कामके लिए उन्हें कभी इसकी कमी महसूस नहीं हुई। मैं सच्ची प्रगतिके लिए इन्हें जरूरी नहीं मानता। हमें विनयशील बननेकी जरूरत है। और विनय तथा सादगी सिर्फ बाहरी दिखावेकी चीजें नहीं हैं । जब पॉल विनयकी बात कहते हैं तब उनका मतलब हार्दिक विनयसे है। सच्चे ईसाईको बोलने- की जरूरत नहीं होती । वह तो बस अपना अंगीकृत काम करता रहता है । मेरा ही उदाहरण लें। दक्षिण आफ्रिकामें मैंने जो काम किया, उसमें भाषणोंका स्थान सबसे गौण था । जो १६,००० व्यक्ति मेरे साथ एकजुट होकर उठ खड़े हुए, उनमें से अधिकांशने मुझे देखातक नहीं था, मेरा भाषण आदि सुनना तो दूर रहा।

जब हमें लगता है कि सत्य तो वही है जो ईसाई धर्ममें है तब फिर हम दूसरेधर्मोकी आलोचना कैसे न करें?

यह सवाल मुझे सहिष्णुता के कर्त्तव्यपर कुछ कहनेको बाध्य करता है। अगर आप यह नहीं सोच सकते कि दूसरे धर्म भी आपके धर्मके समान ही सच्चे हो सकते हैं तो कम से कम इतना तो मानिए कि दूसरे लोग भी आपकी ही तरह सच्चे हैं। मुझे यह कहते हुए हर्ष हो रहा है कि ईसाई मिशनरियोंकी असहिष्णुता आज उतनी भद्दी शक्ल में प्रकट नहीं होती जितनी भद्दी शक्ल में उसके नमूने कुछ वर्ष पूर्व देखनेको मिलते थे । ईसाई साहित्य संस्था (क्रिश्चियन लिटरेचर सोसाइटी) के प्रकाशनोंमें हिन्दू धर्मका जैसा मजाक उड़ाया गया है, उसपर तनिक सोचकर देखिए। अभी पिछले ही दिनों एक महिलाने मुझे लिख भेजा कि अगर मैं ईसाई धर्मको स्वीकार नहीं करता तो मैं जो कुछ कर रहा हूँ, सब बेकार होगा । और कहनेकी जरूरत नहीं कि ईसाई धर्मसे उनका मतलब जिस रूप में वे उसे समझती हैं, वही ईसाई धर्म है । अन्तमें मैं तो इतना ही कह सकता हूँ कि यह सही रवैया नहीं है ।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, ११-८-१९२७