पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/३१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अक्सर उसे अपने राष्ट्र-धर्मसे विमुख कर देना और यूरोपीय रंगमें रँग देना होता है । क्या बेहतर आदमी बननेके लिए यह जरूरी है कि हम अपनी सादगीको छोड़ दें ? आप कृपया हमारी सादगीपर प्रहार न करें।

हमारे सामने सेवा करना और धर्मकी शिक्षा देना, सिर्फ यही दो सवाल नहीं हैं; एक तीसरा सवाल भी है, अर्थात् लोगोंको ईसा मसीहके आगमन और हमारे पापोंके प्रायश्चित्तके लिए उनके बलि चढ़ जानेका शुभ सन्देश भी देना है । यह शुभ सन्देश देने का सही तरीका क्या है ? हमें लोगोंके अपने-अपने धार्मिक विश्वासोंको कमजोर बनानेकी जरूरत नहीं है, लेकिन ऐसी चीजोंके सम्बन्ध में, जो वास्तवमें धर्मका अंग नहीं हैं, उनके मूढ़तापूर्ण विश्वासोंसे तो उन्हें विमुख करना ही चाहिए।

अब यह सवाल तो मुझे अर्थ और व्याख्या के विवादमें पड़नेको मजबूर करता है । मैं उस विवाद में तो नहीं पडूंगा लेकिन इतना कह सकता हूँ कि ईश्वरको वही १९०० वर्ष पहले, एक ही बार शूलीपर नहीं चढ़ना पड़ा था, एक ही बार कष्ट नहीं सहना पड़ा था। वह आज भी शूलीके कष्टको झेल रहा है, वह प्रतिदिन हमारे पापोंका प्रायश्चित्त करनेके लिए मरता है और फिर नया शरीर धारण करके उठ खड़ा होता है। यदि संसारको उसी ऐतिहासिक ईश्वर के भरोसे जीना पड़ता जो आजसे २००० वर्ष पूर्व मर चुका है, तो कहना मुश्किल है कि उससे उसे क्या सन्तोष मिलता। इसलिए, आप उस ऐतिहासिक ईश्वरकी बात लोगोंसे मत कहिए, बल्कि स्वयं अपने जीवन और आचरणमें उसे सजीव-रूप में लोगोंको दिखाइए । दक्षिण आफ्रिकामें मैं अनेकानेक मित्रोंके सम्पर्क में आया और बहुत-सी पुस्तकें भी पढ़ीं। इनमें पियर्सन, पार्कर और बटलरकी कृतियाँ भी थीं। मैंने पाया कि हर व्यक्तिने ईसाई धर्मकी अपनी एक अलग व्याख्या दी है । तब मेरे मन में यह विचार आया कि मुझे इन परस्पर-विरोधी व्याख्याओंमें सिर नहीं खपाना चाहिए। अपनी मान्यताओं और विश्वासों का इजहार शब्दों में करने के बजाय उन्हें अपने जीवन में उतारकर दुनियाको दिखाना कहीं अच्छा है । सी० एफ० एन्ड्रयूज तो लोगोंको कभी भी धर्मकी शाब्दिक सीख नहीं देते। वे निरन्तर अपने काममें लगे हुए हैं। उन्हें करनेको काफी काम मिल जाता है और जहाँ कोई काम मिलता है कि बस, वे उसीमें जुट जाते हैं, और शूलीके कष्ट सहने, दुनिया के लिए दुःख उठानेका कोई श्रेय भी नहीं लेते । मैं सैकड़ों सच्चे ईसाइयोंको जानता हूँ, लेकिन एन्ड्रयूजसे श्रेष्ठ मुझे कोई नहीं लगा ।

लेकिन, जड़ पदार्थोंमें चेतन शक्तियोंकी कल्पना करके उनकी पूजा करने जैसी बातोंके सम्बन्ध में क्या किया जाये ? क्या लोगोंके इन अन्धविश्वासों को भी नहीं सुधारना चाहिए ?

हम तथाकथित 'अस्पृश्यों' और पिछड़े वर्गोंके लोगोंके बीच काम करते रहे हैं, लेकिन हमने उनके धार्मिक विश्वासोंकी कभी कोई चिन्ता नहीं की, चाहे उन विश्वासोंका सम्बन्ध जड़ पदार्थोंमें चेतन सत्ताके आरोपणसे रहा हो या किसी और चीजसे । ज्योंही हमारा जीवन सही मार्गपर आरूढ़ हो जाता है, सारे अन्धविश्वास