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२५५. गाँवों में मवेशियोंकी दशाका सुधार

इस सप्ताह मैं गाँवोंमें मवेशियोंकी दशामें सुधार करनेकी एक सहकारी योजना- पर विलियम स्मिथ द्वारा लिखी टिप्पणी[१] प्रकाशित कर रहा हूँ । ७ जुलाईके अंकमें[२] प्रकाशित पिंजरापोल सम्बन्धी योजना तो ऐसी है जिसे लगभग तुरन्त लागू किया जा सकता है। कारण यह है कि उसके लिए जिन साधनोंकी आवश्यकता है वे सब तैयार पड़े हैं और जो कुछ करना है वह इतना ही कि उनमें जरूरी सुधार और वृद्धि कर दी जाये। लेकिन, व्यापार के लिए घी तैयार करनेवाले क्षेत्रोंसे बाहर पड़ने- वाले और शहरोंसे दूर बसे गाँवोंके लिए सुझाई इस योजनाको कार्य रूप देना जरा कठिन है। लेकिन सच्चा सुधार तो इन असंख्य गाँवोंसे ही शुरू करना है, क्योंकि आर्थिक तंगी और लोगोंके पशु-पालनसे अनभिज्ञ होनेके कारण यही गाँव कसाईखानोंको वध करनेके लिए पशु देनेवाले असली केन्द्र हैं । अगर कोई ध्यान से विचारकर देखे कि इतने सारे पशु भारत के असंख्य कसाईखानोंमें किस प्रकार पहुँचते हैं तो वह पायेगा कि एजेंट लोग, जिनका एकमात्र धर्म, चाहे जैसे भी हो, जल्दीसे-जल्दी अधिकसे- अधिक पैसा बनाना है, शहरोंसे दूर बसे इन्हीं गाँवोंसे कसाईखानोंके लिए जानवर खरीदते हैं। गो-सेवक बनना कोई आसान बात नहीं है और कोई चाहने भरसे ही गो-सेवक नहीं बन सकता। उसे अपनी कलाका उतना ही अध्ययन करना है जितना कि किसी डाक्टर या वकील या इंजीनियरको करना पड़ता है और उसे परिश्रम तो इनसे भी अधिक करना है। इसलिए जो लोग पशुओं और भारतीय गाँवोंके कल्याणके इच्छुक हैं, उन्हें कुछ चुने हुए गाँवोंमें श्री स्मिथकी योजनाको लागू करनेके विचारसे ध्यानपूर्वक उसका अध्ययन करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि जरूरत के मुताबिक इसमें कोई फेर-बदल नहीं किया जा सकता । पशु-पालन और सहकारी योजनाओंसे सर्वथा अनभिज्ञ लोगोंके लिए यह एक आदर्श योजनाका काम दे सकती है । और इसमें सरकारी सहकारिता विभागके उल्लेखसे किसी असहयोगीके भी बिदक उठनेकी जरूरत नहीं है । इस समय राष्ट्रीय असहयोग आन्दोलन जैसी कोई चीज तो चल नहीं रही है। जब वह आन्दोलन चल रहा था, तब भी उसका सम्बन्ध सभी सरकारी विभागों से नहीं था । उन दिनों भी बहुत-से ऐसे असहयोगी थे जो सहकारी समितियोंको त्याज्य नहीं मानते थे, और आज भी मैं ऐसे अनेक व्यक्तियोंको जानता हूँ जो अपने-आपको असहयोगी बताते हैं, हालाँकि वे सक्रिय सहकारी संगठनोंके सदस्य हैं। लेकिन जो गो-सेवक सरकार द्वारा कानूनन स्थापित किसी सहकारी समितिका लाभ उठाना नहीं चाहता वह भी इस योजनाका उपयोग कर सकता है। बल्कि मैं तो ऐसा सोचता हूँ कि क्या यही बेहतर नहीं होगा कि कुल मिलाकर

  1. यहाँ नहीं दी जा रही है।
  2. देखिए “पिंजरापोलोंके समक्ष उपस्थित काम " ७-७-१९२७।