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२७०. एक सत्याग्रहीका देहान्त

भाई हरिलाल माणिकलाल देसाईको शायद 'नवजीवन' के सब पाठक न जानते हों । कुछ ही दिन पहले भड़ौच में उनका देहान्त हो गया । उनके पास रहनेवाले एक मित्र लिखते हैं कि उनके मुखपर अन्ततक प्रसन्नताकी झलक थी ।

भाई हरिलालने असहयोग आन्दोलन के समय बड़ौदा हाई स्कूल छोड़ दिया था । वहाँ वे फ्रान्सीसी भाषा पढ़ाते थे । तबसे लेकर मृत्यु - पर्यन्त असह्योगपर उनका विश्वास अविचल बना रहा। उन्होंने सत्यको जैसा समझा वैसा यथाशक्ति उसका पालन करनेका प्रयत्न किया । अतः मैंने उन्हें सत्याग्रही कहा था । उनकी नम्रता उनके सत्यके आग्रहको शोभान्वित करती थी। असहयोगके प्रारम्भिक कालमें वे कुछ समय के लिए मेरी यात्राओंमें मेरे साथ घूमे थे । उस समय उनकी कार्य करनेकी स्वच्छता, सूक्ष्मता और सावधानीने मुझे मुग्ध किया था । उन दिनों मेरे अनेक पत्रोंका उत्तर वे ही देते थे और ऐसी अन्य मदद भी करते थे । इस सहवासकी अवधि में मैं देख सका था कि वे सत्याग्रह और असहयोगका अध्ययन बहुत सूक्ष्मतासे करते थे। कपडवंजमें उन्होंने केवल अपने ही प्रयत्नसे खादीका काम शुरू किया था और उसे सुशोभित किया था । अन्तिम वर्षोंमें वे भड़ौच शिक्षा मण्डलकी मदद कर रहे थे और इस सिलसिले में शिक्षणका जो भी कार्य उन्हें सौंपा जाता, उसे करते थे । सत्याग्रहका कोई शुभ अवसर आनेपर जो व्यक्ति उसमें एकदम जुट सकते हैं ऐसे जिन व्यक्तियों के नाम मैंने अपने मन में लिख रखे हैं उनमें हरिलाल भाईका नाम भी था । निर्दय कालने उस नामको मिटा दिया है। लेकिन सत्याग्रहीको इससे भी दुःख नहीं होना चाहिए। सत्याग्रही साथी जितनी मदद जीतेजी करता है उतनी ही मरनेके बाद भी करता है । 'मरकर जीना' ही उसका महामन्त्र है ।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, ७-८-१९२७