पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/३७

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१. पत्र : गंगुकों

[ १५ जून, १९२७ के पश्चात ][१]

चि० गंगू,

तुम्हारा पत्र मिला । हिन्दी अच्छी है । गलतियाँ शीघ्रतासे शुद्ध हो जायगी । लक्ष्मीबेनने जो कुछ कहा उसका विरोध दिल में भी नहीं करना चाहिये । उसका वटपूजाके लिए [ जाना ] इतना ही योग्य था जितना नहीं जाना तुम्हारे लिये योग्य था । ऐसी बातोंमें तुम्हारी श्रद्धा नहीं है इसलिये तुम्हारा जाना अनावश्यक था और जाने में हृदय- दौर्बल्य अथवा दंभका सम्भव आ जाता। हमारे अभिप्राय और आचारके लिये दूसरोंके तरफसे जितनी औदार्यकी आशा रखनेका हमको हक है इतना ही औदार्य दूसरोंके आचार-विचारके लिये हम रखें।

चि० मगनलालने तुमको चर्खा नहीं दिया उसमें दुःख मानने की कुछ भी आव- श्यकता नहीं है । उसको पूछने से चर्खा नहीं देनेका कारण भी वह बता देंगे । यदि उस कारणसे हमको संतोष न भी हो तो भी हम दुःख न मानें । व्यवस्थापक या वडील [ गुरुजन ] प्रत्येक कार्यका संतोषजनक कारण न बता सकें उससे वह अभिप्राय या कार्य अयोग्य है ऐसा हम शीघ्रतासे न मान लें। मतभेद और सुख-दुःखादि द्वन्द्वकी बरदाश्त करनेका पाठ हम केवल समाज में रहकर ही सीख सकते हैं। और क्योंकि तुम सेविका बनना चाहती है और ब्रह्मचारिणी रहना चाहती है इसलिये तुम्हारेमें तितिक्षा और औदार्य दोनों गुण अच्छी तरहसे आना चाहिये । मीराबेन कहती है तुम्हारे कातना धुनना इ० पक्का करनेकी आवश्यकता है कताईमें धागे की. . . [२]

मणिवेन तो अब तक ब्रह्मचारिणी ही रही है और रहना चाहती है और उसके लिये प्रयत्न भी कर रही है । दूसरीने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया है तो भी ब्रह्मचर्यका महिमा जानती है और उसका पालन भी करनेका प्रयत्न करती है । मेरा [ हेतु ] इस पत्रके लिखने से तुम्हारे विचारोंको दबाना नहीं। जो कुछ भी ख्याल आवे उसको अवश्य लिखो । गल्ती होगी वह में बतानेकी चेष्टा करूँगा । और इसमें से जितना ग्राह्य प्रतीत हो उतना करना और आगे बढ़ना ।

एस० एन० १२३२४ की माइक्रोफिल्मसे ।

३४-१

  1. यह पत्र १९२७ में मीराबहनके साथ रेवाड़ी आश्रमसे साबरमती आश्रम गंगूके जानेके बाद लिखा जान पड़ता है। वटपूजा १५ जूनको पड़ी थी।
  2. मूलमें यहाँ स्थान खाली है।