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२.हिन्दू-मुस्लिम एकता

कांग्रेस अध्यक्षने[१] जब मुझे तार द्वारा सूचित किया कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीने हिन्दू-मुस्लिम समस्या के सम्बन्धमें एक प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया है[२], तो उससे मुझे किसी उल्लासका अनुभव नहीं हुआ । तारमें प्रस्तावकी विषय-वस्तु के बारेमें काफी जानकारी दे दी गई थी। जब अध्यक्ष महोदय मुझसे नन्दीमें[३] मिले, तब उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या में इसपर कुछ नहीं लिखूंगा। मैंने उनसे कहा कि मैं नहीं समझता कि मैं ऐसा कुछ लिख सकूंगा जिससे कोई लाभ हो। इस मुलाकातके चन्द दिन बाद ही एक भाईसे मुझे एक पत्र प्राप्त हुआ ।आशय इस प्रकार था : " हमारे बीच जो दंगे हो रहे हैं, उसके लिए आप ही जिम्मेदार हैं। अगर आप हिन्दुओंको खिलाफत आन्दोलन में न घसीटते तो हालकी दुःखद घटनाएँ न हुई होतीं। लेकिन अब तो सिर्फ आप ही हमें बचा सकते हैं।"

अनुवाद करते हुए मैंने मूलमें प्रयुक्त भाषाकी कड़वाहट कम कर दी है। इस पत्रसे मुझे ऐसा लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के सम्बन्ध में अपना विचार मुझे एक बार फिर लोगों के सामने रख देना चाहिए।

खिलाफत आन्दोलनके सिलसिले में मैंने जो कुछ किया, उसका मुझे कोई दुःख नहीं है। वह तो मैंने अपने मुसलमान भाइयोंके प्रति अपना कर्त्तव्य ही निभाया था। अगर हिन्दुओंने मुसीबतकी घड़ी में अपने भाइयोंकी मदद न की होती तो वे गलती करते। आज जो वस्तुस्थिति है, वह चाहे जितनी बुरी दीख रही हो, मुसल- मानोंकी भावी पीढ़ियाँ हिन्दुओंके इस महान् मैत्रीपूर्ण कार्यको बड़ी कृतज्ञतासे याद करेंगी। लेकिन भविष्यकी बात छोड़ भी दें तो चूँकि में इस कहावतमें विश्वास रखता हूँ कि नेकी स्वयं अपना पुरस्कार है, मैंने खिलाफत आन्दोलनमें जो कुछ किया, उसे मैं बराबर ठीक ही कहूँगा । अतएव, उन भाईके फटकार-भरे पत्रको मैंने बिलकुल शान्त-भावसे ग्रहण किया ।

मेरी बड़ी इच्छा है कि मैं उनकी अपेक्षाएँ पूरी करके दोनों समुदायोंके बीच शान्ति स्थापित करने में तत्काल ठोस सहायता दे सकूँ। कारण, एकता और एकताकी आवश्यकता में आज भी मेरा विश्वास उतना ही प्रबल है जितना कि पहले किसी भी समय रहा है। अगर मेरे प्राण देनेसे यह एकता हासिल हो सकती हो, तो मुझमें अपने प्राण दे देनेकी इच्छा और शायद उसके लिए आवश्यक शक्ति भी है। अगर मेरे अनिश्चित कालतक के लिए उपवास करनेसे हिन्दुओं और मुसलमानोंके

  1. एस० श्रीनिवास अय्यंगार ।
  2. १५ और १६ मई, १९२७ को बम्बई में
  3. तात्पर्य बंगलोरके निकट स्थित नन्दी हिल्ससे है, १९ अप्रैल से ४ जूनतक विश्राम किया था। वे २६ मार्च, जहाँ गांधीजीने बीमारीसे ठीक होनेके बाद १९२७ को बीमार पड़े थे; देखिए खण्ड ३३ ।