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३६९. संयमका नियम

एक भाईने डा० कोवेनकी किताब 'साइन्स ऑफ ए न्यू लाइफ में से कुछ प्रासं- गिक उद्धरण भेजे हैं। मैंने किताब नहीं पढ़ी है, मगर उद्धरणोंमें[१] दी गई सलाह बेशक बिलकुल ठीक है। मैंने उनमें से भोजनके बारेमें कुछ अनुच्छेद निकाल दिये हैं, क्योंकि हिन्दुस्तानी पाठकोंके लिए वे बहुत कामके नहीं है। शुद्ध और संयमपूर्ण जीवन बितानेकी इच्छा रखनेवाले यह न सोचें कि चूंकि इसका इष्ट फल तुरन्त नहीं मिलता, इसलिए इसके आचरणका प्रयत्न करना ही फिजूल है। कोई यह अपेक्षा भी न रखे कि दीर्घ कालतक सफलतापूर्वक संयमका जीवन बिताने से उसका शरीर सभी तरहसे निर्दोष और पूर्ण हो जायेगा । संयम और इन्द्रियनिग्रहका पालन करनेके लिए निर्धारित नियमोंके अनुसार चलनेका प्रयत्न करनेवाले हममें से अधिकांश लोगोंके मार्ग में तीन बाधाएँ हैं। अपने माता-पिताओंसे हमें निर्बल मन और तनकी विरासत मिली है, और गलत ढंगके रहन-सहनसे हमने अपने शरीर और मनको और भी निर्बल बना लिया है। जब शुद्ध जीवनके पक्षमें लिखा कोई लेख हमारे मनको आकृष्ट करता है तो हम सुधार शुरू करते हैं। जहाँतक ऐसे सुधारका सम्बन्ध है, यह तो किसी भी उम्र में नहीं सोचना चाहिए कि अब इसे शुरू करनेका समय बीत गया । परन्तु हमें इन लेखों में वर्णित लाभोंकी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि ये लाभ तो उसीको होंगे, जिसने अपनी जवानीके शुरूसे ही अत्यन्त संयमका जीवन बिताया हो । तीसरी बाधा यह है कि सभी प्रकारके कृत्रिम और बाहरी संयमके पालनके बावजूद हम विचार-संयमका पालन करने में, अपने विचारोंका ठीक नियमन करने में अपने- आपको असमर्थ पाते हैं। शुद्ध जीवन व्यतीत करनेकी आकांक्षा रखनेवाले लोग यह जान लें कि अक्सर बुरे विचार भी शरीरके लिए उतने ही हानिकर होते हैं जितने कि बुरे काम । विचार-संयम दीर्घ-कालतक कठिन प्रयत्नोंसे ही साध्य होता है। मगर मेरा पक्का विश्वास है कि उस महान् फलकी प्राप्ति के लिए जितना समय और जितना श्रम लगाया जाये, जितना कष्ट सहा जाये, उसे अधिक नहीं कहा जा सकता। विचारोंकी पवित्रता तो तभी आ सकती है, जब ईश्वरमें इतनी अधिक आस्था हो, मानो उसका साक्षात्कार-सा कर लिया हो ।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २५-८-१९२७

  1. उक्त अंश यहाँ नहीं दिया जा रहा है।