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११. पत्र : आर० बी० ग्रेगको

कुमार पार्क,बंगलोर
१६ जून,१९२७

प्रिय गोविन्द,

तुम्हारा पत्र मिला । तुमने टाइपराइटरों और टाइपिस्टोंके बारेमें जो कुछ लिखा, बेशक में उसके एक-एक शब्दसे सहमत हो सकता हूँ। मैंने इस बातको जिस रूपमें रखा उसमें और तुम्हारे पत्रमें परस्पर कोई असंगति नहीं है । मैंने तुम्हें केवल यही तो बताया था[१] कि लोगोंको जो ऐसा लगता है कि अच्छे-अच्छे टाइपिस्ट रखने के बारेमें उपेक्षा बरतो गई है, सो उस उपेक्षाका कारण क्या है ?

लेकिन, विज्ञापनका विचार मुझे नहीं जँचता । हमारी कुछ इतनी मर्यादाएँ हैं कि जो लोग हमें जानते हैं वे विज्ञापनके उत्तरमें कभी अर्जी नहीं देंगे। लेकिन अगर नौकरीकी खोज में लगा कोई अनजान आदमी, जिसे यह नहीं मालूम है कि हम क्या हैं, अर्जी देता भी है तो उसे कष्ट देनेका मतलब सिर्फ उसका और हमारा समय हो बरबाद करना होगा । यह बात मैं अपने कटु अनुभवके आधारपर ही लिख रहा हूँ । लेकिन, मैं फिर तुम्हारी बात स्वीकार करता हूँ कि हमारी मर्यादाओंके बावजूद शिक्षित भारतीयोंके खादी कार्य में आनेकी काफी गुंजाइश है । और यह प्रक्रिया धीरे-धीरे चल भी रही है। इस विषयपर में और भी बहुत कुछ लिख सकता हूँ । लेकिन, तफसीलकी बातें लिखकर तुम्हें नाहक कष्ट क्यों दूं ? पिछला पत्र मैंने बहुत विस्तारसे लिखा था, क्योंकि मैं कुछ सिद्धान्तोंकी चर्चा करना चाहता था ।

मैं तुम्हारी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि मगनलालजीको जो भी सहायता दरकार हो, मिलनी चाहिए और हम उनके लिए, जहाँतक सुलभ हो, अच्छीसे अच्छी सहायताकी व्यवस्था करें; और अगर मुझे यह लगे कि तुम्हारे सुझाये ढंगसे विज्ञा- पन निकालने से यह बात बन सकती है तो में विज्ञापन निकालनेको भी तैयार हूँ । और जो भी हो, खुद मगनलाल तो विज्ञापन निकाल ही सकते हैं। इसमें किसी प्रकारकी सैद्धान्तिक अड़चनें नहीं हैं और ज्यादा खर्चकी बात भी नहीं उठती |

मैं जानता हूँ कि तुम्हारा मतलब यह कदापि नहीं था कि आदमीका मल उठाने- में कोई बुराई है, और मुझे यह भी मालूम है कि आश्रम में तुमने खुद भी यह काम किया है। मैंने जो कुछ कहा वह यह कि खुद अस्पृश्य लोग इसके बारेमें, मैंने जैसा बताया, वैसा महसूस करेंगे। मैं जानता हूँ कि ऐसा महसूस करना गलत होगा । लेकिन मैंने तो सिर्फ इस कठिनाईका उल्लेख-भर किया। तुमने जैसा सुझाया है, वैसा काम वे तभी करेंगे जब हममें से कुछ लोग इसे कर दिखायें और सफलतापूर्वक कर दिखायें । पता नहीं इसके पीछे तुम्हारी प्रेरणा रही है या नहीं, मगर आहार-सम्बन्धी डा० केलॉगकी पुस्तकका एक नया संस्करण मेरे पास भेजा गया है। पुस्तक बहुत

  1. देखिए खण्ड ३३ “ पत्र : आर० बी० ग्रेगको ", २७-५-१९२७ ।