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पत्र : बाल कालेलकरको

अब दूसरा प्रश्न । अहिंसाका अर्थ है -- किसीको भी मन, वचन या शरीरसे, उसके अनिष्टकी इच्छा करके अथवा स्वार्थ-सिद्धिके लिए दुःख न देना । यदि हम अपने माता-पिताके हितमें किसी तीसरे व्यक्तिके अनिष्टकी इच्छा करें तो यह हिंसा ही है और इस तरह किसीके अनिष्टकी इच्छा करनेसे दुनियाका या स्वयं माता- पिताका कल्याण नहीं होता, यह हम अपने ज्ञानका उपयोग करके देख सकते हैं और सिद्ध भी कर सकते हैं। इसीलिए मैंने यह लिखा था कि जितनी इच्छा हम अपने कल्याणकी करते हैं उतनी ही इच्छा हम दुनियाके कल्याणकी करें, इस विचारमें आहिंसाकी जड़ है। और मेरा विश्वास है कि अहिंसाकी खोज इसी अनुभवके आधार- पर हुई होगी। इस तरह तुम देखोगे कि हम इस बातको स्वतन्त्र रीतिसे भी सिद्ध कर सकते हैं कि दुनियाके कल्याणकी इच्छा करना वांछनीय है, इतना ही नहीं बल्कि यदि हम अहिंसाके धर्मका पालन करते हैं तो उस धर्मका पालन करनेके लिए भी हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम जगत्के कल्याणकी उतनी ही इच्छा करें जितनी अपने कल्याणकी करते हैं। अगर यह बात हम बचपन से ही समझ जायें तो हमारी बुद्धि उसे स्वीकार कर लेती है, और वह हमारे हृदयको भी जँच जाती है। मतलब यह कि ब्रह्मचर्य आश्रम में हम जिस त्यागका पालन केवल श्रद्धापूर्वक करते हैं उस त्यागका पालन यदि हमेशा करनेकी प्रतिज्ञा कर लें तो हम संन्यासी हो जायें । भूतकालमें शंकराचार्यने ऐसा ही किया था। हमारे अपने युगमें दयानन्दने यही किया । हम सब ऐसा नहीं कर सकते, यह हमारी एक कमी है और जगत्का कल्याण करनेके हमारे प्रयत्न में यह एक बड़ी बाधा है। लेकिन यह सब हम केवल बुद्धिका प्रयोग करके नहीं कर सकते। किन्तु बुद्धिका उपयोग करके प्रतिदिन यदि हम इस सत्यको अपने हृदय में अंकित करते रहें और वह अंकित हो जाये तो इसका फल यह होगा कि अपने सर्वस्वका त्याग करने में हमें सारी दुनिया भी क्यों न रोके हम किसीके रोके नहीं रुकेंगे। तुम्हारे मनमें कोई और विशेष प्रश्न उठता हो तो पूछना । यदि यह पत्र दूसरे सब विद्यार्थियोंको पढ़वा सको तो पढ़वा देना ।

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी ।
सौजन्य : नारायण देसाई