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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आफ्रिकामें हमने सबसे पहले जाकर उसे रहने लायक बनाया ।जहाँतक मुझे मालूम है, भारतीय किसानोंने आफ्रिकीयोंको कोई नुकसान नहीं पहुँचाया है। इसलिए हम अधिकांशतया आफ्रिकियोंकी सद्भावनापर ही पूरी तरहसे निर्भर रहें। इसलिए सर्वथा उचित तो यही है कि गोरे हमें फिर इस बातका इत्मीनान दिलायें कि यह तो ठीक है कि उनके पास शक्ति है इसलिए वे हमारे अधिकारोंका कितना भी हनन कर सकते हैं...[१] परन्तु तब मुझे इन दो बुनियादी प्रश्नोंपर किंचित् भी कोई समझौता नहीं करना चाहिए। अभी इस समय जबकि मेरी राय, जहाँतक प्रश्न के राजनीतिक पहलूका सम्बन्ध है,...[२] अवस्थामें है, में सार्वजनिक रूपसे कुछ भी लिखना या कहना नहीं चाहता। बादमें ऐसा करना बिलकुल ही जरूरी हो जाये तो बात दूसरी है। मैं जानता हूँ और यह जानकर मन दुःखी होता है कि पूर्व आफ्रिकामें हमारे भाई सही ढंग से काम नहीं कर रहे हैं और उनके नेतागण स्वार्थरहित नहीं हैं ।

हृदयसे आपका,

श्री एस० जी० वझे
सवेंट्स ऑफ इंडिया सोसायटी
पूना सिटी

अंग्रेजी (एस० एन० १३२७६) की फोटो-नकलसे ।

३९८. पत्र : बाल कालेलकरको

आरनी
२ सितम्बर, १९२७

चि० बाल,

तुम्हारा पत्र मिला। मुझे बहुत अच्छा लगा। समयके अभाव में जल्दी जवाब नहीं दे सका। तुम्हारे दो प्रश्नोंका उत्तर देता हूँ। ब्रह्मचारी भोगका त्याग केवल श्रद्धा के कारण, माता-पिताकी आज्ञासे अथवा ऐसा कहो कि प्रचलित रीतिकी प्रेरणाके अधीन करता है। उसके त्यागमें आज्ञाका पालन है, ज्ञान नहीं । और यदि वह इस त्यागका पालन सदा न कर सकता हो तो विद्याभ्यास पूरा होनेके बाद उसे एक मर्यादाके भीतर भोग भोगनेकी छूट होती है। किन्तु संन्यासी भोगका त्याग ज्ञान- पूर्वक और स्वेच्छासे करता है। इसके सिवा त्यागका व्रत लेनेके बाद वह अपने लिए भोगके जीवन में वापस आनेकी छूट नहीं रखता, रख भी नहीं सकता। ये दोनों ही त्याग व्यक्ति और समाजके लिए अत्यन्त आवश्यक हैं।

  1. मूलमें पह वाक्य अधूरा रह गया लगता है।
  2. मूलमें यहाँ स्थान रिक्त है।