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पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको

साबरमती आकर वहाँ कुछ दिन रहनेका वादा किया है, लेकिन इस वादे को वे आजतक पूरा नहीं कर पायी है ।

हृदयसे आपका,

मो० क० गांधी

श्रीयुत गो० कृ० देवधर

सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी

पूना

अंग्रेजी (एस० एन० १४१६९) की फोटो- नकलसे ।

४३. पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको

कुमार पार्क,बंगलोर

२२ जून,१९२७

जिनेवासे लिखा आपका पत्र मिला । आशा है मेरे पिछले सारे पत्र, जिनमें से अन्तिम अंग्रेजी में था, मिल गये होंगे। देखता हूँ, अपने स्वभावके अनुसार आप वहाँ हर बातको बहुत ध्यानसे देख-परख रहे हैं । लेकिन मुझे उम्मीद है, हमारे कुछ लोगोंने जैसा किया है, उस तरह आप जल्दबाजी में कोई निष्कर्ष नहीं निकालेंगे। बाहरसे आकर्षक दीखनेवाली सभी चीजें वास्तव में अच्छी ही नहीं होतीं। इससे उलटी बात भी उतनी ही ठीक है । अर्थात् जो चीजें बाहरसे कुरूप दीखती हैं वे सबकी सब वास्तव में बुरी ही नहीं होतीं । और फिर क्या अनेक प्रसंगोंमें हमें ये दोनों - समृद्धि और गरीबी, अच्छाई और बुराई, जैकिल और हाइड[१], देवता और राक्षस- - साथ-साथ देखनेको नहीं मिलते ? आपने सुरा और सुन्दरीके प्रति लोगोंके मोहके साथ शारीरिक शक्ति, व्यवस्था, सर्वसामान्य प्रामाणिकता और ज्वलन्त देश-भक्तिके जिस संयोगका वर्णन किया है, उससे इनकार नहीं किया जा सकता, फिर भी सच तो यही जान पड़ता है कि एक गुण सभी अन्य गुणोंका सहज कारण नहीं बन पाता । और फिर गुण- विशेष जब परम्पराका रूप ले लेता है तब वह वास्तव में गुण नहीं रह जाता। हमारे लिए शाकाहार कोई गुण नहीं है। हम लोग परम्परासे ही शाकाहारी हैं। इसलिए हम शाकाहारी लोगों में से अधिकांशके लिए मांसाहारी बनना ही त्याग और कष्टकी बात हो सकती है। लेकिन यूरोपके लिए शाकाहार एक गुण होगा। शाकाहारी बन जाना किसी भी यूरोपीयके जीवन के लिए एक सक्रिय शक्ति सिद्ध होगा, और अगर वह सत्यान्वेषी है तो वहीं एक सुधार उसके जीवन में अनेक सुधारोंका मार्ग प्रशस्त कर देगा । भारतकी यात्रा करनेवाले यूरोपीयोंने हमारे सुखी पारिवारिक जीवन और पारिवारिक स्नेह-सौहार्दकी प्रशंसा की है। यह गुण तो हमारे अस्तित्वका अंग है । पिता अपने

  1. आर० एल० स्टीवेनसनके इसी नामके उपन्यासका एक पात्र जो अचेत अवस्थामें दोहरा जीवन जीता था। ३४-४