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१५४. पत्र : आश्रमकी बहनोंको

मौनवार, ७ नवम्बर, १९२७

बहनो,

यह पत्र जहाजमें लिख रहा हूँ। डाकमें तो दो दिन बाद डाला जायेगा, लेकिन मेरी आदत तुम्हें सोमवारको ही लिखनेकी है इसलिए आज ही लिख डालता हूँ । इस बार आश्रममें दो दिन खूब काममें बीते। थकावटके बावजूद आश्रम छोड़ना अच्छा न लगा ।

तुम देखती होगी कि तुम सबकी जिम्मेदारी दिन-दिन बढ़ती जा रही है। किन्तु किसीको घबराना नहीं चाहिए। कर्त्तव्य-परायण बनी रहना और अशान्तिमें भी शान्ति प्राप्त करना सीखना । हमारा आनन्द हमारे धर्म-पालनमें हो, कार्यकी सफलता या परिस्थितियोंकी अनुकूलतामें नहीं। नरसिंह मेहताने कहा है :

नोपजे नरथी तो कोई नव रहे दुखी

शत्रु मारीने सहु मित्र राखे ।[१]

मगर मनुष्य तो रंक प्राणी है। वह राजा तभी होता है जब कि वह अहंकारको छोड़कर ईश्वरमय हो जाता है। समुद्रसे अलग होकर बूंद किसी कामकी नहीं रह जाती । परन्तु समुद्र में विलीन हो जानेसे वह अपनी छातीपर इस बड़े जहाजके भारको वहन करनेमें समर्थ होती है। इसी तरह अगर हम आश्रममें और उसके जरिये जगत्में यानी ईश्वरमें समा जाना सीख लें तो पृथ्वीका भार उठानेवाले माने जायेंगे। मगर उस समय तो 'मैं-तू' मिटकर 'वह' अकेला ही रह जायेगा ।

मालका ही जहाज हो तो उसमें बड़ी शान्ति रहती है।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (जी० एन० ३६७५) की फोटो-नकलसे ।
 
  1. १. अर्थात् मनुष्यके वशकी बात हो तो कोई भी दुःखी न रहे; वह शत्रुओंका नाश करके केवल मित्रोंको ही रहने दे।