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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

घृणाकी भावना बढ़नेकी सम्भावना है। अहिंसाका प्रचार करनेकी कोशिश करनेवाले सुधारकको इस बातकी ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए और घृणासे बचनेकी कोशिश करनी चाहिए, लेकिन उसे किसी भी हालतमें घृणाके कारणोंको छिपानेकी हिमाकत नहीं करनी चाहिए। प्रेमके रूपमें अहिंसा संसारकी सबसे सक्रिय शक्ति है। जैसा कि गुजराती कवि शामलने कहा है : "भलाईके बदले भलाई करनेमें क्या बड़प्पन है? वैसा तो बहुतेरे करते हैं। बड़प्पन तो बुराईके बदले भलाई करनेमें है।" स्पष्ट ही यहाँ बड़प्पन अहिंसाका पर्याय है। घृणाके कारण तो हमें सर्वत्र दिखाई देते हैं। प्राचीन ऋषि-मुनियोंने देखा कि इस परिस्थितिका एकमात्र उपाय प्रेमके बलपर घृणाको निष्प्रभाव बना देना है। इसलिए, प्रेमकी यह शक्ति तो वास्तवमें तभी निखरती है जब उसका साबका घृणाके कारणोंसे पड़ता है। सच्ची अहिंसा घृणाके कारणोंकी उपेक्षा नहीं करती, उनकी ओरसे आँखें बन्द नहीं करती, बल्कि उन कारणोंके अस्तित्वकी जानकारी होनेके बावजूद उन कारणोंको प्रस्तुत करनेवालोंपर अपना असर दिखाती है। यदि बात ऐसी नहीं होती तो स्वराज्यके लिए अहिंसात्मक तरीकोंसे संघर्ष करना असम्भव ही होता। कारण, स्वराज्यके लिए लड़नेवालोंको तो हर कदमपर विदेशी शासन और विदेशी शासकोंके दोष दुनियाके सामने प्रकट करने ही हैं। तो अहिंसाके नियममें अर्थात् बुराईके बदले भलाई करने, अपने शत्रुसे मी प्रेम करनेके इस नियम में 'शत्रु' के दोषोंका ज्ञान होना जरूरी है। इसीलिए शास्त्रोंमें कहा है : "क्षमा वीरस्य भूषणम्।"

अब शायद यह स्पष्ट हो गया होगा कि अहिंसावादीको नीलकी प्रतिमा और ऐसी ही दूसरी प्रतिमाओंको हटवानेके आन्दोलनका समर्थन क्यों करना चाहिए। लेकिन, शस्त्र लेकर चलना किसी अहिंसावादीके लिए वांछनीय नहीं है, क्योंकि उससे शस्त्रोंका उपयोग करनेकी अपेक्षा नहीं की जाती। और मेरे विचारसे शस्त्रास्त्र अधिनियमको बिलकुल खत्म करवा देनेके उद्देश्यको कभी भी एक उचित उद्देश्य नहीं माना जायेगा। इसलिए शस्त्रास्त्र अधिनियमको समाप्त करवानेके लिए शस्त्रास्त्र लेकर चलनेके आन्दोलनका अहिंसाकी किसी भी योजनामें कोई स्थान नहीं हो सकता।

अब शायद नीलकी प्रतिमा हटवानेके आन्दोलनपर जरा बारीकीसे विचार करना जरूरी है। उस प्रतिमाके पाद-पीठके मुख-भागपर खुदा हुआ अभिलेख इस प्रकार है :

जेम्स जॉर्ज स्मिथ नील
महारानीके ए॰ डी॰ सी॰
मद्रास फ्यूजिलियर्सके लेफ्टिनेंट कर्नल
भारतमें ब्रिगेडियर जनरल
प्रथम प्रतापी पुरुषके रूपमें सर्वमान्य
एक बहादुर, दृढ़निश्चयी, आत्मविश्वासी सेनानी
जिन्होंने बंगालमें विद्रोहको आगको शान्त किया।
२५ सितम्बर, १८५७ को ४७ वर्षकी अवस्थामें
लखनऊकी रक्षा करते हुए वीरगतिको प्राप्त हुए।