पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 36.pdf/२८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

२७९. पत्र: के० माधवन् नायरको

आश्रम
साबरमती
१७ अप्रैल, १९२८

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। आपने जो कुछ किया उसमें विचार-दोष है। यदि आपके मित्रके लिए विधि-सदस्यका पद स्वीकार कर लेना ठीक था तो यह सार्वजनिक और निजी दोनों दृष्टियोंसे सही था । और यदि आपके लिए उन्हें निजी रूपमें बधाई देना उपयुक्त था तो अपनी सार्वजनिक स्थितिमें और सार्वजनिक रूपमें बधाई देना भी उतना ही उपयुक्त होता । यदि आपके मित्रको जल्लाद नियुक्त कर दिया जाये, तो आप निजी तौरपर या सार्वजनिक रूपमें उसे बधाई नहीं देंगे, चाहे उसमें कितनी ही बड़ी तनख्वाह क्यों न मिलती हो और नियुक्ति करनेवालोंकी दृष्टि में वह स्थान कितना ही सम्मानास्पद क्यों न हो । क्या एक समय हमारा ऐसा विचार नहीं था कि वर्तमान सरकारके सदस्य बिलकुल जल्लादों जैसे हैं ? हमारे एक मित्रको विधि- सदस्यका पद दिया गया और उसने इसे स्वीकार कर लिया, यह वास्तवमें तो धिक्कारका ही विषय है। परन्तु आप मौजूदा सरकार और इस सरकारको चलानेवाले लोगोंके बारेमें मेरी जो राय है उसमें शायद मुझसे सहमत न हों। यदि ऐसी बात है तो आप यदि चाहें तो अपने आचरणकी सार्वजनिक रूपमें सफाई दें और उस लोक-निन्दाका खतरा मोल लें जो अस्थायी तौरपर इससे सम्बन्धित हो सकता है । आखिर आपको तो अपनी अन्तरात्माके अनुमोदनसे पूरा सन्तोष हो जाना चाहिए ।

आप यह ठीक कहते हैं कि यदि हमारे निजी निर्णय और अनुभूतियाँ दबाई जायें तो हम पाखण्डी बन जायेंगे। यदि लोक-सेवक पाखण्डी बन जायेंगे तो वह हमारे लिये अशुभ दिन होगा ।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत के० माधवन् नायर

सदस्य, विधान परिषद्
कालीकट

अंग्रेजी (एस० एन० १३१८६) की फोटो-नकलसे ।