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२८५. पत्र : सतीशचन्द्र दासगुप्तको

आश्रम
साबरमती
१९ अप्रैल, १९२८

प्रिय सतीश बाबू,

आपका पत्र मिला। आपने अपनी सेहतके बारेमें कुछ नहीं लिखा। आशा है कि आपका स्वास्थ्य ठीक चल रहा होगा। क्या इस यात्राका अर्थ खादीकी ज्यादा बिक्री होना है? जिन लोगोंके समक्ष भाषण दिये जाते हैं उनकी ओरसे ज्यादा चन्दा मिल रहा है, या विशिष्ट व्यक्तियोंसे ही मिल रहा है?

अंग्रेजी (जी० एन० १५८९) की फोटो-नकलसे ।

हृदयसे आपका,
बापू


२८६. पत्र : मोतीलाल नेहरूको

आश्रम
साबरमती
२० अप्रैल, १९२८

प्रिय मोतीलालजी,

आपका पत्र मिला। मुझे हर रोज कुछ ऐसी नई बातें मालूम हो रही हैं जिनसे यह जाहिर होता है कि हम फिलहाल मिल-मालिकोंसे कुछ उम्मीद नहीं रख सकते। वे केवल दबावके आगे झुकेंगे, और सरकारका दबाव कांग्रेसके दबावसे ज्यादा महसूस होता है। परन्तु हमें अधीर नहीं होना चाहिए। हमें भारतीय मिलोंमें बने कपड़ेके बहिष्कारको उसी श्रेणी में रखनेकी जरूरत नहीं है, जिसमें हम विदेशी वस्त्र बहिष्कारको रखते हैं। मिलोंको हितकर नियन्त्रण में रखने के लिए मिलोंमें बने कपड़ेके प्रति निषेधात्मक रुख रखना काफी होगा। स्पष्ट बहिष्कारसे तो सिर्फ मन-मुटाव होगा और उससे हम विदेशी वस्त्र बहिष्कारके काममें कुछ भी आगे नहीं बढ़ेंगे।

जबतक जनताकी सामूहिक शक्तिका आकस्मिक आविर्भाव नहीं होता हम लाखों लोगोंके पास पहुँचनेमें कभी सफल नहीं हो सकते। हम चाहे जो करें उसके बावजूद ये लाखों लोग फिलहाल भारतीय मिलोंका कपड़ा खरीदते रहेंगे और एक ओर लंकाशायर और जापानी मिलोंका और दूसरी ओर भारतीय मिलोंका कड़ा मुकाबला होगा। इसलिए हमें अपना प्रयास शहरी लोगों तथा जिनपर हमारा बस है ऐसे