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गलत पदचिह्नोंपर

जाते थे। इस तरह गाँवों सबके-सब बुनकर कम्पनीके कारखानोंको ताबेदारीमें रहा करते थे।... और जुलाहोंको दबाये रखना केवल दस्तूर ही की बात नहीं थी, किन्तु नियमोंके जरिए इसे कानूनी भी बना दिया गया था। कानूनमें यह विहित था कि जिस जुलाहेने कम्पनीसे पेशगी ले ली हो, वह “अपनी मजदूरी या कपड़ा, जिसका वह कम्पनीसे ठेका कर चुका है, किसी यूरोपीयन या हिन्दुस्तानीको किसी भी हालतमें नहीं दे सकता "। अगर वह कपड़ा न दे सके तो "व्यापारिक रेसिडेन्टको अधिकार होगा कि उसपर शीघ्र कपड़ा वसूल करनेके लिए प्यादे बैठा दे। " दूसरोंके हाथ कपड़े बेचनेपर "जुलाहोंपर दीवानी अदालतमें मुकदमा चलाया जा सकेगा। " "जिन जुलाहोंके पास एकसे अधिक करघे हों या जिनके पास एक या अधिक कारीगर हों, वे यदि शर्तनामके मुताबिक कपड़े न दे सकें तो उतने कपड़ेके दामका ३५ फी सदी तकका जुर्माना उनपर किया जा सकता है। " जमींदारों और रैयतोंको "हुक्म दिया जाता है कि वे जुलाहोंके पास व्यापारिक रेसिडेन्ट या उनके अमलदारोंके जानेमें बाधा न डालें। " और उन्हें “सख्त मुमानियत की जाती है कि वे कम्पनीके व्यापारिक रेसिडेन्टोंके साथ अनादरका बरताव न करें। "

तब इसमें आश्चर्य ही क्या है अगर जुलाहे अपने अँगूठे आप काटकर ऐसे असह्य दबावोंसे छूट निकले ? जो उद्योग जान बूझकर इस तरह नष्ट कर दिया गया था, और जिससे लाखों लोगोंके घरके खर्चमें सहायता मिलती थी, उसे पुनरुज्जीवित करना हर एक देश-प्रेमी भारतीयका पवित्र कर्तव्य है और हर अंग्रेज, जो इस महान् देशके प्रति किये गये अपने पूर्वजोंके पापका प्रायश्चित करना चाहे, उसे इस उद्योगको पुनरुज्जीवित करना अपना सौभाग्य समझना चाहिए। मगर हम देखते हैं कि प्रायश्चित्तके बजाय १५० वर्ष पहले शुरू की गई नीतिपर जमे रहने और इस गलतीको ही हर मुमकिन तरीकेसे गौरवान्वित करनेका दुःखद प्रयत्न किया जा रहा है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया १९-४-१९२८

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