पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 36.pdf/३६२

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३७१. पत्र : शंकरन्को

आश्रम
साबरमती
१२ मई, १९२८

प्रिय शंकरन्,

तुम्हारा पत्र मिला। मुझे खुशी है कि तुमने पत्र लिखा । पर तुम गलतीपर हो। मैं सबको मगनलाल जैसा नहीं बनाना चाहता। यह तो एक असम्भव काम होगा। परन्तु मैं आश्रमको ऐसा बनाना चाहता हूँ ताकि इसका प्रबन्ध आसानी से हो सके। यदि आश्रम में सम्मिलित रसोई है तो वह सबके लिए सम्मिलित होनी चाहिए - क्या यह ठीक नहीं है? पर इस सम्बन्ध में भी मैं सर्वसाधारणकी सहमतिके बिना कुछ नहीं करूंगा । जो भी हो वर्तमान संविधान के अन्तर्गत, सिवाय प्रबन्ध मण्डलके जरिये, जिसमें पदाधिकारीके रूपमें मेरी कोई आवाज नहीं है, कुछ करवानेके अतिरिक्त मैं कुछ नहीं कर सकता। यह सही है कि अभी तक मेरी बात सभी लोग सुनते हैं। क्या ही अच्छा होता कि जब ये परिवर्तन किये जा रहे हैं, तुम यहाँ होते। पर तुम अपने काममें लगे हो । वह यहाँ होनेके समान ही है।

मैं तुम्हें तबतक बारडोली नहीं भेज सकता जबतक कि तुम्हारे बदले काम करने योग्य कोई व्यक्ति न मिल जाये; और वैसा अभी सम्भव नहीं है ।

बापू

अंग्रेजी (एस० एन० १३२२५) की माइक्रोफिल्मसे।

३७२. पत्र : लाजपतरायको

आश्रम
साबरमती
१२ मई, १९२८

प्रिय लालाजी,

आपका पत्र मिला । कृपया यह न सोचें कि "संरक्षण" शब्दका प्रयोग मैने किसी बुरे अर्थमें किया है। [१] मैंने जो कहा है और मैं जो कहना चाहता हूँ उसे मैं फिरसे दुहरा दूं। मैं नहीं चाहता कि आप खादी और खादी आन्दोलनके कोई दूरके ही प्रशंसक बने रहें। मैं चाहता हूँ कि आप उसी गहन विश्वास के साथ अपने हृदय और अपनी आत्मा सहित इसमें अपनेको लगा दें जिस प्रकार आपने अस्पृश्यता

  1. देखिए पत्र: लाजपतरायको" २९-४-१९२८ ।