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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

११. विद्यापीठके मातहत चलनेवाली संस्थाओंमें (सभी मौजूदा धर्मोंके प्रति पूरा आदर होना चाहिए और विद्यार्थियोंके आत्म-विकासके लिए धर्मका ज्ञान अहिंसा और सत्यको ध्यान में रखकर दिया जाना चाहिए।

१२.प्रजाके शारीरिक विकासके लिए व्यायाम और शारीरिक मेहनतकी तालीम विद्यापीठमें जरूरी समझी जायेगी।

यह प्रस्ताव पास करके व्यवस्थापक लोग अपनी जिम्मेदारीसे मुक्त नहीं हो जाते। मगर जैसे उन्होंने अपने हाथसे अधिकार छोड़कर जिम्मेदारी दिखाई है, वैसे ही यह उम्मीद रखी जा सकती है कि वे बाहर रहते हुए अपनी जिम्मेदारी ज्यादा समझेंगे। डूबते हुए जहाजका अधिकार विश्वसनीय खलासियोंको सौंपते वक्त मालिक सच्ची जिम्मेदारीसे हाथ नहीं धोते, मगर वे अपने खलासी नौकरोंके मातहत काम करनेमें अपनेको धन्य समझते हैं और अपनी मिल्कियतको बचानेकी बुद्धिमानी करते हैं। यही हालत व्यवस्थापक-समितिके सदस्योंकी होनी चाहिए।

व्यवस्थापकोंकी नैतिक जिम्मेदारी स्थूल जिम्मेदारी छोड़नेमें जितनी बढ़ी है,मण्डलकी जिम्मेदारी भी उतनी ही बढ़ी है। संस्थाके इस संक्रान्तिकाल में ऐसे ही मण्डलको इस संस्थाका अधिकार लेना चाहिए, जिसे विद्यापीठकी मौजूदा हालतको सुधारनेकी आशा हो । मण्डलमें एक भी सदस्य या सदस्याको नामके लिए नहीं रखा गया, बल्कि सिर्फ काम और कामकी ही आशासे रखा गया है। उन्हें सतत जाग्रत रहना है।

ध्येयोंकी देह और आत्माको मरते दम तक बनाये रखने में इस मण्डलकी सेवा और उसका मूल्य निहित है। जो ध्येयोंके बारेमें प्रतिज्ञा लें, वे ही मण्डलमें रहें,ऐसा नियम होनेके कारण सदस्य ध्येयोंको माननेवाले तो होने ही चाहिए। उनके ध्येयोंको बारीकीके साथ पालन करनेमें ही विद्यापीठकी वृद्धि है। उन्हें अपनेपर भरोसा होगा तो उसका संस्पर्श विद्यार्थियोंको भी होगा और विद्यार्थियों तक फैला हुआ संस्पर्श जनतामें फैले बिना रह ही नहीं सकता।

ध्येयोंको ध्यानसे पढ़नेवाले देखेंगे कि सरकारी और असहयोगी विद्यालयोंके बीच कहीं भी मुकाबला नहीं हो सकता।सरकारी छायामें रहनेवाली पाठशाला जिन पुस्तकोंका एक उपयोग करेगी,उन्हीं पुस्तकोंका असहयोगी पाठशाला दूसरा करेगी।यह लिखते वक्त भी महाविद्यालयके विद्यार्थी मेरे इस कथनके पदार्थपाठके रूपमें उपस्थित हैं ।

मगर असहयोग, अहिंसा और सत्यमें से जो ध्येय निकलते हैं, उनपर जरा विचार कर लें। अस्पृश्यताका निरपवाद बहिष्कार, चरखा-यज्ञ, स्वभाषाके जरिये ही शिक्षा और हिन्दी-हिन्दुस्तानी तथा उद्योगकी शिक्षाको लाजिमी स्थान--ये सब विशेषताएँ हैं। राष्ट्रीय विद्यापीठके लिए ये चीजें नई नहीं हैं, पर इन्हें इस प्रस्ताव में रखने के दो अर्थ हैं। एक तो यह कि उनके पालनमें जो-कुछ ढिलाई रहा करती थी, वह अब बर्दाश्त नहीं की जायेगी, उसके बारेमें समझौता नहीं होगा। दूसरा अर्थ यह है कि प्रस्तावमें उसे साफ तौर पर रखकर व्यवस्थापकोंने उन ध्येयों पर अपना विश्वास स्पष्ट रीतिसे प्रकट कर दिया है। उतने ही महत्वका ध्येय ग्राम-शिक्षाका