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४३. पत्र : हेनरी नीलको

आश्रम
साबरमती
२२ फरवरी, १९२८

प्रिय मित्र

आपका पत्र मिला ।

ब्रिटिश शासनमें लाखों बच्चे पौष्टिक भोजनके अभावमें भूखे रह रहे हैं और पर्याप्त वस्त्रोंके अभावमें ठंडसे काँप रहे हैं। मैं यह भारतके उन नगरोंके बारेमें नहीं कह रहा हूँ, जिनमें भारतकी जनसंख्याका एक नाममात्रका अंश रहता है। लेकिन यह बात मैं बेखटके कह रहा हूँ १९०० मील लम्बे और १५०० मील चौड़े प्रदेशमें बिखरे लगभग सात लाख गाँवोंके बारेमें; मुझे यह अन्देशा नहीं है कि मेरी बातका खण्डन किया जा सकता है।

मैं समझता हूँ कि आपका 'गैर-ईसाई धर्मोके अन्तर्गत ' वाला पहला प्रश्न दूसरे प्रश्नमें आ जाता है। लेकिन अगर आपके पहले प्रश्नका सम्बन्ध ब्रिटिश शासनसे पहलेके भारतसे है, तो मैं केवल अपना यह अनुमान ही सूचित कर सकता हूँ कि बच्चे आज ब्रिटिश शासनमें जैसी हालतमें हैं, वे पहले उसकी बनिस्बत असंख्य गुना अच्छी हालतमें थे।

आपके तीसरे प्रश्नका जवाब दे सकना कठिन है। आपके मनमें किस ईसामसीहकी बात है ? ऐतिहासिक ईसामसीहकी ? मैं इतिहासका ऐसा विद्यार्थी नहीं हूँ, जिसने उसे बारीकीसे पढ़ा हो; इसलिए मैं इतिहासके ईसामसीहको ठीक-ठीक नहीं जानता। अथवा आपका अभिप्राय उन ईसामसीहसे है जिनका ईसाई इंग्लैंड और ईसाई यूरोप प्रतिनिधित्व करते हैं? यदि आपका अभिप्राय वही हो तो मुझे लगता है कि उसका जवाब तो दिया ही जा चुका है। किन्तु यदि आपका अभिप्राय (सरमन ऑन दि माउन्ट) गिरिप्रवचन वाले उस दिव्य और निगूढ़ अलौकिक ईसा मसीहसे है

१.३ जनवरी, १९२८का पत्र जो इस प्रकार था। "...भारतके गरीब बच्चोंकी दशा गैर-ईसाई धर्मोंके अन्तर्गत कैसी थी और ब्रिटिश शासनमें कैसी है कृपया मुझे बताइये और फिर इसकी तुलना में यह भी बताइये कि यदि ईसामसीहके हाथमें भारतका शासन प्रबन्ध होता तथा लोग उनको शिक्षापर चलते तो इन बच्चोंकी कैसी दशा होतो..." (एस० एन० १४२२४) ।