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भूमिका

सन् १९२६ के आरम्भमें गांधीजी ने सक्रिय राजनीतिसे हटकर अपनी गतिविधियोंको आश्रम और रचनात्मक कार्यक्रमके दायरेमें सीमित कर लिया था। इस खण्डमें, जिसका आरम्भ जुलाई, १९२८ में होता है और समाप्ति अक्टूबर, १९२८ में, हम उन्हें धीरे-धीरे अपने इस स्वेच्छा स्वीकृत दायरेसे बाहर आते हुए देखते हैं। यह वह समय है जब राजनीतिक क्षेत्रमें हो रही महत्त्वपूर्ण घटनाएँ गांधीजी के नेतृत्वमें ब्रिटिश सरकारके साथ एक नई लड़ाईके लिए जमीन तैयार कर रही थीं। राजनीतिक नेता उस संसदीय आयोगकी चुनौतीके खिलाफ, जो ब्रिटिश संसद द्वारा भारतके राष्ट्रीय मतकी सम्पूर्ण अवज्ञा करके नियुक्त किया गया था, संयुक्त मोर्चा बनानेका प्रयत्न कर रहे थे। गांधीजी नेताओंके इन प्रयत्नोंको सहानुभूतिपूर्वक देख रहे थे, किन्तु उनके मनमें उनकी उपयुक्तताके सम्बन्धमें सन्देह भी था। उनका ध्यान तो राष्ट्रीय माँगको पूरी करानेके लिए आवश्यक शक्तिका निर्माण करनेपर केन्द्रित था। इसलिए एक ओर तो वे पिछले अप्रैलमें शुरू हुए बारडोली सत्याग्रह में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे थे और दूसरी ओर राष्ट्रीय संग्राममें उपयुक्त भूमिका निबाहनेके लिए आश्रमको तैयार करने में लगे हुए थे। काम श्रम-साध्य था (देखिए, पत्र: बी॰ जी॰ हॉनिमैनको, पृ॰ ३९३), किन्तु जिस फलके लिए वह किया जा रहा था उसे देखते हुए करणीय भी था। बारडोली संघर्षकी समाप्तिके बाद मोतीलाल नेहरूको लिखे एक पत्रमें उन्होंने कहा था: "आश्रममें ही मेरे लिए बहुत ज्यादा काम है। पता नहीं, आप यह जानते हैं या नहीं कि बारडोली-संघर्ष इस आश्रमके कारण हो सम्भव हो सका है। . . . यदि मैं आश्रमको, जैसा मैं चाहता हूँ, वैसा बना सकूँ तो बहुत बड़े पैमानेपर मोर्चा लेनेको तैयार रहूँगा" (पृ० २०५)।

यदि सत्याग्रह विधानवादियोंकी माँगकी पूर्तिका प्रभावकारी साधन प्रस्तुत करता था तो स्वयं सत्याग्रह अपनी अलौकिक शक्ति जुटा रहा था – उस तपस्या और रचनात्मक कार्यसे जो आश्रममें किया जा रहा था और जिसके कारण ही न केवल बारडोली सत्याग्रह बल्कि दो वर्ष बाद दांडी-कूच और नमकके भण्डारोंपर किये जानेवाले छापे भी सम्भव हो सके।

बारडोलीका किसान सत्याग्रह, जिसका नेतृत्व वल्लभभाईने अद्भुत कौशल और वीरताके साथ किया था, ६ अगस्तको – गांधीजी उस समय कुछ दिनोंके लिए बारडोली में ही थे – सरकारसे समझौता होनेके साथ समाप्त हो गया। कहा जा सकता है कि जहाँ इस सत्याग्रह के अभियानने 'सजीव' स्वराज्य या तत्त्वात्मक स्वराज्यकी नींव डाली, वहाँ नेहरू रिपोर्टने, जिसे अगस्तके अन्तमें लखनऊमें हुए सर्वदलीय सम्मेलनने अपना अनुमोदन प्रदान किया, सांविधानिक या रूपात्मक स्वराज्यका मार्ग