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प्रशस्त किया। स्वराज्यके इन दो पक्षोंके पारस्परिक सम्बन्धकी चर्चा इस खण्डमें बार-बार हुई है। 'इंडियन नेशनल हेराल्ड' को प्रेषित २८ अगस्तके अपने सन्देशमें गांधीजी कहते हैं: "लखनऊने जो रास्ता दिखाया है, उसपर चलकर संवैधानिक स्वराज्य तो प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन अन्दरसे विकसित होनेवाला जीवन्त स्वराज्य जो रामराज्यका पर्याय है, बारडोली द्वारा दिखाये रास्तेपर चलकर ही प्राप्त किया जा सकता है" (पृ॰ २२४)। यह विचार उन्होंने 'नवजीवन' के एक लेख (पृ॰ २६२) में भी दुहराया है।

बारडोली सत्याग्रहने जनताकी संकल्प-शक्तिकी कसौटी और उसके प्रदर्शनका एक उपयुक्त अवसर पेश किया। इस सत्याग्रहका नेतृत्व वल्लभभाईने किया था, किन्तु उसका मार्गदर्शन दूरसे स्वयं गांधीजी ही कर रहे थे। इस बातसे उनकी भूमिकाके सम्बन्धमें कुछ गलतफहमी पैदा हो गई और उन्हें उसका निरसन करनेकी जरूरत हुई थी (पृ॰ ८८)। गांधीजी पर इस अभियानका क्षेत्र बढ़ाकर उसे एक अखिल भारतीय राजनीतिक प्रश्न बनाने के लिए जोर डाला गया, किन्तु उन्होंने नैतिक और व्यावहारिक कारणोंसे उसका प्रतिरोध किया। सत्याग्रहकी कल्पनामें ही यह वस्तु निहित है कि जबतक परिस्थितियाँ उसे वैसा करनेके लिए बाध्य ही न कर दें तबतक सत्याग्रहीको अभियानको अवधिमें अपनी मांगोंको बढ़ाना नहीं चाहिए। इसके सिवा, प्रस्तुत प्रसंगमें तो गांधीजी ऐसा भी महसूस कर रहे थे कि देश अभी ऐसे किसी संघर्षके लिए तैयार नहीं है जिसमें वह अपनी पूरी शक्तिसे जुट सके। इस सम्बन्ध में लिखते हुए उन्होंने कहा कि "अभी सहानुभूतिमें मर्यादित ढंगका सत्याग्रह करनेका समय भी नहीं आया है। बारडोलीको अभी यह साबित करना बाकी है कि वह खरी धातुका बना हुआ है।" आलोचककी ओरसे इस आपत्तिकी सम्भावनाका विचार करके कि उनके रवैये में व्यवहारकी कुशलता लक्षित नहीं होती, इसी लेखमें उन्होंने यह भी कहा है कि ईश्वरकी जीवन्त उपस्थितिका विश्वास सत्याग्रहका आधार है "और सत्याग्रही उससे मार्गदर्शन पाता है। नेता अपनी शक्तिपर नहीं, बल्कि ईश्वरकी शक्तिपर निर्भर करता है। . . . इसलिए जिसे व्यावहारिक राजनीति कहते हैं, वह चीज अकसर उसके लिए अवास्तविक होती है, यद्यपि अन्ततः उसकी अपनी नीति सबसे अधिक व्यावहारिक राजनीति साबित होती है" (पृ॰ ११७)।

लेकिन जहाँ गांधीजी ने बारडोली सत्याग्रहको अधिक व्यापक राजनीतिक संघर्षका रूप देनेसे इनकार कर दिया वहाँ उन्होंने लोगोंकी सम्मान-भावना और स्वाभिमानसे सम्बन्धित मूलभूत मुद्दोंपर उनकी माँगोंमें किसी तरहकी कमी करना भी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने लोगोंको उस धमकीकी उपेक्षा करनेकी सलाह दी जो राज्यपालने २३ जुलाईको विधान परिषद्में अपने भाषणमें दी थी (पृ॰ १०३-४ और १३७-९); और उन सदाशय व्यक्तियोंके प्रयत्नोंकी चर्चा करते हुए जो सरकार और सत्याग्रहियोंके बीच समझौता करानेकी कोशिश कर रहे थे, उन्होंने उनसे आग्रह किया कि वे सत्याग्रहियोंको