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१११. पत्र : अहमदाबाद केन्द्रीय जेलके अधीक्षकको

आश्रम, साबरमती
२६ जुलाई, १९२८

महोदय,

आपका इसी २४ तारीखका पत्र मिला। इस लिखा-पढ़ीके सिलसिलेको जारी रखनेकी मेरी कोई इच्छा नहीं है। आपके इस पत्रमें मुझे ऐसी कोई बात नहीं मिली जिससे मैं अपने गत २१ तारीखके पत्रमें[१] जाहिर की गई राय बदल सकूँ। यदि आप ऐसा नहीं समझते कि जिन लोगोंको आपने देखा वे आश्रमवासी थे तो फिर यह बात मेरी समझमें नहीं आती कि वे लोग कौन थे, इसकी जाँच करके उन्हें आगाह कर देनेको आश्रमसे कैसे कहा गया। और न मैं यही बात समझ पा रहा हूँ कि वह अनधिकार प्रवेशी, अनधिकार प्रवेशी नहीं है जिसके साथ वे लोग, जिनके हलकेमें वह अनधिकार प्रवेश करता है, शिष्टतापूर्ण व्यवहार करते हैं। आपको शायद मालूम हो कि हम तो चोर-डाकुओंके साथ भी शिष्टतापूर्ण व्यवहार करनेकी कोशिश करते हैं।

आपके यहाँके अधिकारियोंकी नम्रताका सबूत पानेके लिए मैं श्रीयुत कोठारी या श्रीयुत कालेलकरसे पूछताछ नहीं कर रहा हूँ, इसके लिए आप मुझे क्षमा करेंगे। इसका निर्णय करने के लिए तो आपका अपना पत्र मेरे सामने मौजूद है।

आपका विश्वस्त,

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३४८६) की फोटो-नकलसे।

 

११२. पत्र : हेमप्रभा दासगुप्तको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
[२७ जुलाई, १९२८ के पूर्व][२]

प्रिय भगिनि,

आपका खत मील गया है। चि॰ निखिलके लीये कुछ भी चिंता न करना चाहीये। यदि उसके इस देहसे ईश्वर काम लेना नहिं चाहता है तो भले ले जाय। पुत्र प्रेम, पति प्रेम, मित्र प्रेम इ॰ का अर्थ एक ही है। वह यह है। सब प्रेमका परिवर्तन करके हम केवल ईश्वर प्रेम ही रखे क्योंकी सबको ईश्वरमें ही लीन होना

 

  1. देखिए "पत्र: अहमदाबाद केन्द्रीय जेलके अधीक्षकको", २१-७-१९२८।
  2. देखिए "पत्र: हेमप्रभा दासगुप्तको", २७-७-१९२८।