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१३९. बातचीत : बारडोलीमें[१]

२ अगस्त, १९२८

बारडोलीके लिए रवाना होने से पहले गांधीजी ने कहा:

मैं बारडोली सरदारके आदेशपर जा रहा हूँ। यह तो है ही कि वल्लभभाई मुझसे अक्सर सलाह-मशविरा करते हैं, लेकिन क्या सेनाध्यक्ष अपने अधीन काम करनेवाले बिलकुल मामूली सैनिकसे भी सलाह-मशविरा नहीं करता? मैं बारडोली सरदारका स्थान लेने नहीं, बल्कि उनके अधीन काम करनेके लिए जा रहा हूँ।

बारडोली आने पर भी उनका वही रवैया रहा और कई जगहों पर उन्होंने इस बातपर जोर दिया ताकि लोक-सेवाका कार्य करनेवालोंके मन में अनुशासनकी भावना गहराई तक पैठ जाये।

किसान लोग कीचड़-पानीसे भरे रास्तोंको लांघकर गांधीजी के दर्शन करने के लिए विभिन्न स्थानोंसे आये। उनके एक दलने कहा कि "हम सरदारके हुक्म पर अपने प्राण देने को तैयार हैं, हमने अपने सिर उनके सुपुर्द कर दिये हैं, लेकिन अपनी नाक नहीं।" इसपर गांधीजी ने कहा:

तब फिर निश्चित मानिए कि आपकी नाक बिलकुल सुरक्षित है, लेकिन अभी एक भारी अग्नि-परीक्षाका अवसर आनेवाला है। यदि आप उस अन्तिम आँचको सह लेंगे तो फिर समझ लीजिए कि आपकी जीत निश्चित है। लेकिन आप मुझे एक बात बताइए। मान लीजिए वल्लभभाईको गिरफ्तार कर लिया जाता है और उन्हींके साथ अन्य कार्यकर्त्ताओंको भी, तो क्या आप हिम्मत नहीं हार बैठेंगे?

इसपर उनमें से एकने दृढ़तापूर्वक कहा: "नहीं, डरनेका कोई सवाल ही नहीं उठता। वल्लभभाईने इतना कुछ किया है कि यहाँका लोहा अब इस्पात बन चुका है और हम जानते हैं कि हमें बस इतना ही करना है कि चाहे आसमान उलट जाये, लेकिन हम अपना वचन पूरा करें।"

यह सुनकर गांधीजी बहुत प्रसन्न हुए। किसी भाईने उनसे कहा कि उन्हें कुछ गाँवोंको जाकर देखना चाहिए। इसपर गांधीजी ने कहा कि "नहीं, जबतक वल्लभभाई मुझसे नहीं कहते, मैं ऐसा नहीं कर सकता।" वल्लभभाईकी इच्छासे ही गांधीजी सरभोंग और रायम नामक दो गाँवोंको देखने गये, जहाँ वे आसपासके बीसियों गाँवोंसे आये सैकड़ों किसानोंसे मिले।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, ९-८-१९२८

 

  1. महादेव देसाई के लिखे “बारडोली सप्ताह दर सप्ताह" (बारडोली वीक बाई बीक) से