पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
दस

 

प्रस्तुत खण्डमें संकलित पत्र सदाकी तरह इस तथ्यको उजागर करते हैं कि गांधीजी में अपने पत्रलेखकोंके साथ उनकी कठिनाइयोंमें एक-रूप हो जानेकी, उनके प्रश्नोंको अपना प्रश्न बना लेनेकी, कैसी अद्भुत क्षमता थी। और उनके पत्र लेखकों में एक ओर जहाँ वह शिक्षक है जो गांधीजी की सलाह अपने इस विषम सवाल पर चाहता है कि शिक्षक होते हुए भी उसे नाईका अपना परम्पराप्राप्त कर्तव्य करते रहना चाहिए या नहीं, वहीं दूसरी ओर मोतीलाल नेहरू-जैसे राष्ट्रीय नेता भी हैं, जो उनके साथ अपनी सार्वजनिक चिन्ताएँ बँटाना चाहते हैं। मोतीलाल नेहरूको लिखे हुए पत्र उनके प्रति गांधीजी की सम्मानको भावना प्रगट करते हैं और अपनी भाषा तथा शैलीसे अपने एक ऐसे साथीको लिखे गये जान पड़ते हैं जो उनके साथ समानताके स्तरपर और अन्तरंग भावसे राष्ट्रीय सवालोंकी चर्चा कर सकता था। एक अन्य साथी, जिनके वैयक्तिक और पारिवारिक सवालोंमें गांधीजी गहरी दिलचस्पी लेते थे, बंगालके पथिकृत खादी-कार्यकर्ता सतीशचन्द्र दासगुप्त थे। उन्हें और उनकी पत्नी हेमप्रभादेवीको लिखे गांधीजी के प्रत्येक पत्रमें उनके प्रति गांधीजी का चिन्तायुक्त प्रेम तथा उनके कामकाजमें गांधीजीकी गहरी रुचि स्पष्ट झलकती है। गांधीजीकी स्पष्टवादिता और मनुष्य-सुलभ दुर्बलताओंके प्रति उनकी दृष्टि हमें शौकत अलीको लिखे एक पत्रमें मिलती है। "मैं यह जरूर कहूँगा कि डॉ॰ अन्सारीके नाम लिखा आपका जो एकमात्र पत्र मैंने पढ़ा, वह मुझे अच्छा नहीं लगा। . . . . मैं तो खुद ही अक्सर गलतियाँ करता हूँ और मुझे बराबर मित्रों और विरोधियोंकी क्षमाशीलताकी आवश्यकता रहती है। इसलिए जिस चीजको मैं आपकी गलती मानूं, उसको लेकर मैं चिन्ता क्यों करूँ?" (पृ० ३१७)।

इसी खण्डमें 'यंग इंडिया' में लिखित "ईश्वर है" शीर्षकवाला वह लेख भी जा रहा है जिसे गांधीजी ने सन् १९३१ में, अपने लन्दन-प्रवासके दरम्यान, अमेरिकाको प्रेषित अपने सन्देशके लिए रिकार्ड कराया था। इस लेखमें उन्होंने ईश्वरमें अपनी श्रद्धाका स्वरूप समझाया है और दुनियामें विद्यमान बुराई पर, जिसे ईश्वर चलने देता है पर जिससे वह स्वयं अलिप्त रहता है, अपने विचारोंको स्पष्ट किया है। वे कहते हैं, "मैं यह भी जानता हूँ कि यदि मैं अपने प्राणोंकी बाजी लगाकर बुराईके विरुद्ध संघर्ष नहीं करूंगा तो मैं ईश्वरको कभी भी नहीं जान पाऊँगा" (पृ॰ ३६५)।