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नौ


धर्मसे विमुख रहें और खेती न करनेवाले मुट्ठी-भर मनुष्य ही अहिंसाको सिद्ध कर सकें, ऐसी स्थिति मुझे परम धर्मको शोभनेवाली अथवा उसे सिद्ध करनेवाली नहीं मालूम होती" (पृ॰ ४०२)। गांधीजी का यह तर्क सचमुच लाजवाब था। इसी प्रसंगमें उन्होंने यह भी कहा कि "धर्ममें सर्वव्यापक होनेकी शक्ति होनी चाहिए। धर्म जगत्के शतांशका इजारा नहीं हो सकता, होना भी नहीं चाहिए।" और चूँकि उनका विश्वास था कि "सत्य और अहिंसा . . . जगद्व्यापी धर्म हैं, इसीसे उसके अर्थकी खोजमें जीवन खपाते हुए भी" वे "रस लूट" रहे थे और "दूसरोंको भी उस रसको लूटनेका आमन्त्रण दे" रहे थे (पृ॰ ४०३)।

गांधीजी के ये विचार रूढ़िपरायण पुराणमतवादियोंको आसानी से पसन्द आ जायेंगे इसकी तो कोई संभावना ही नहीं थी। कुछको तो उनसे गहरा आघात भी लगा; कारण, वे तो निःशंक भावसे यह माने बैठे थे कि गांधीजी उनकी कल्पनाकी सम्पूर्ण अहिंसाकी मूर्ति हैं। किन्तु गांधीजी अविचलित रहे – बल्कि उन्हें इस बातकी खुशी थी कि बछड़े और बन्दरोंके बारेमें उनके उक्त विचारोंने उन लोगोंके भ्रमको तोड़ दिया है। उन्होंने कहा, "महात्माके पदकी अपेक्षा सत्य मुझे अनन्त गुना प्रिय है" (पृ॰ ४२९)। उन्होंने आगे कहा, "अपने विषयमें मैं सिर्फ इतना ही जोर देकर कह सकता हूँ कि अहिंसादि महाव्रतोंको पहचानने तथा उनका मन, वचन तथा शरीरसे पालन करनेका मैं सतत् प्रयत्न कर रहा हूँ" (पृ॰ ४३०)।

टॉल्स्टॉयके जन्म-दिवस पर (१०-९-१९२८ को) अपने भाषण में गांधीजी ने बताया कि उन्होंने टॉल्स्टॉय, खासकर टॉल्स्टॉयके जीवनसे क्या सीखा। इसी प्रसंगमें एक पत्र-लेखकको उन्होंने यह भी बताया कि "जहाँ मोटे तौर पर यह बात बिलकुल सही है कि मेरा जीवन 'गीता' की शिक्षा पर आधारित है, वहाँ मैं दावेके साथ यह नहीं कह सकता कि ब्रह्मचर्यके सम्बन्धमें मेरे निर्णयको टॉल्स्टॉयके लेखों और शिक्षाने प्रभावित नहीं किया है" (पृ॰ २५३-४)। बोल्शेविक विचारधाराके सम्बन्धमें गांधीजी ने बहुत ही कम लिखा या कहा है। उनके तत्सम्बन्धी विरल वचनोंमें से एक इस खण्डमें प्राप्त है। उसमें वे निजी सम्पत्ति समाप्त करनेके लिए हिंसाका आश्रय लेनेकी बोल्शेविकोंकी रीतिसे अपनी असहमति प्रगट करते हैं, किन्तु साथ ही वे यह भी कहते हैं कि "बोल्शेविज्मकी साधनामें असंख्य मनुष्योंने आत्म-बलिदान किया है, लेनिन-जैसे प्रौढ़ व्यक्तिने अपना सर्वस्व उसपर निछावर कर दिया था; ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता" (पृ॰ ३९८)। भारतकी भावी अर्थ-रचनाके सम्बन्धमें जब उनसे प्रश्न किया गया तो उन्होंने उत्तर दिया, "आर्थिक रचना ऐसी होनी चाहिए कि जिससे एक भी प्राणी अन्न-वस्त्रके अभावसे दुःखी न हो। . . . और यदि हम सारे जगत्के लिए ऐसी स्थिति चाहते हों तो अन्न-वस्त्रादि उत्पन्न करनेके साधन प्रत्येक मनुष्यके पास होने ही चाहिए। . . . जैसे हवा और पानी पर सबका समान हक है, वैसे ही अन्न-वस्त्र पर भी होना चाहिए" (पृ॰ ४३२)।