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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

डॉ॰ गलिकका प्रश्न बहुत सार्थक है। मेरी अपनी राय तो यह है कि लोग जो चीज चाहते हैं वह 'निर्बाध-प्रवेशका अधिकार' नहीं है। वे शिष्टतापूर्ण व्यवहार चाहते हैं – वास्तवमें शिष्टतापूर्ण व्यवहार, सिर्फ वैसा करनेकी घोषणा नहीं। और अगर सचमुच उन्हें शिष्टतापूर्ण व्यवहार ही देना है तो कोई ऐसा कानूनी तरीका निकाल लेना बहुत कठिन नहीं है जिसके तहत एक ओर तो "एशियाइयोंकी बाढ़", को – एशियाइयोंके निर्बाध-प्रवेशको भी यही संज्ञा दी गई है – रोका जा सके और दूसरी ओर किसी भारतीयको, जिसकी स्पर्धासे कभी भी डरनेका कोई कारण नहीं है, प्रवेश करनेसे रोकने या अपमानजनक तथा भेद-भावपूर्ण व्यवहारके बाद ही प्रवेश देने की आवश्यकता न रह जाये।

अब मुझे इस सवालका जवाब देनेकी कोई जरूरत नहीं रह गई है कि सौ या सौसे कम या ज्यादा भारतीयोंको प्रवेशका अधिकार देनेसे काम चल जायेगा या नहीं। संख्याका तो कोई महत्व ही नहीं है, महत्त्व है तो सिर्फ तरीकेका।

हृदयसे आपका,

श्री डी॰ एफ॰ मैकक्लीलैंड
यंग मैन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन
एस्प्लेनेड, मद्रास

अंग्रेजी ( एस॰ एन॰ १३८९४) की माइक्रोफिल्मसे।

 

१४३. पत्र: शौकत अलीको

स्वराज आश्रम, बारडोली
३ अगस्त, १९२८

अभी पिछले ही दिनों दिल्ली जाने पर आप अपने दफ्तरमें जो टाइप किया हुआ लम्बा पत्र[१] छोड़ गये थे, वह मुझे मिल गया था। मैंने बड़ी सावधानीसे आपका पत्र पढ़ा और उसमें जो साफगोई है, उसके कारण मैंने उसे बहुत पसन्द किया। मोतीलालजी के बारेमें आपके विचारोंसे मैं सहमत नहीं हूँ। वे गलती कर सकते हैं, लेकिन वे ईमानदार और स्पष्टवादी हैं।

जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं केवल यही कह सकता हूँ कि मैं आज भी वही हूँ, जो १९२० और १९२१ में था। अभी तो मैं केवल यही आशा कर सकता हूँ

 

  1. २३ जुलाई, १९२८ को लिखे अपने पत्र (एस॰ एन॰ १३४८४) के विषय में शौकत अलीने कहा था: "मेरे दफ्तरसे आपको एक टाइप किया हुआ पत्र मिलेगा, जिसपर मेरे हस्ताक्षर नहीं होंगे। उस पत्र में आपको अपने पिछले पत्रका उत्तर मिल जायेगा। . . ."