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१४५. पत्र: चिरंजीवलाल मिश्रको[१]

स्वराज आश्रम, बारडोली
४ अगस्त, १९२८

प्रिय मित्र,

तुम्हारा पत्र मिला[१]

मैं अब भी अंग्रेजी शासनके बारेमें लिखता हूँ, क्योंकि इससे हमारे जीवनका हरएक क्षेत्र प्रभावित है। अंग्रेजी शासनका निन्दक होनेके कारण मैं अंग्रेजोंके गुणोंके प्रति अपनी आँखें बन्द नहीं रखता। यदि भारतको कभी स्वराज्य प्राप्त करना है तो वह दूसरे देशोंकी नकल करके नहीं, बल्कि ऐसा मार्ग खोजकर ही प्राप्त कर सकता है जो उसकी जरूरतोंके लिए विशेष रूपसे उपयुक्त हो। यदि भारतमें और अधिक धार्मिकता आ जाये तो स्वराज्यकी दिशामें उसकी प्रगति और तेज हो जायेगी।

हृदयसे तुम्हारा,

चिरंजीवलाल मिश्र, वकील
हाई कोर्ट, जयपुर सिटी

अंग्रेजी (एस॰ १३९०९ ) की माइक्रोफिल्मसे।

 

१४६. पत्र: विश्वनाथसिंहको

स्वराज आश्रम, बारडोली
४ अगस्त, १९२८

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला।

मुझे यह कहनेमें कोई हिचक न होगी कि यदि आप पुनर्विवाह करना चाहते हों तो आपको बाल-विधवासे विवाह करना चाहिए, भले ही वह कुछ दिन अपने

 

  1. १.० १.१ यह चिरंजीवलाल मिश्रके २६ जून, १९२८ के पत्र (एस॰ एन॰ १३८५०) के उत्तरमें लिखा गया था। चिरंजीवलाल मिश्रने अपने पत्र में गांधीजी द्वारा अंग्रेजी शासनकी निन्दा करनेकी आलोचना की थी और कहा था कि कोई व्यक्ति जितना अधिक धार्मिक होता है, स्वतन्त्रता संग्रामके सैनिकके रूपमें वह उतना हो अधिक अयोग्य हो जाता है।