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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

स्वराज्यकी बात करनेका क्या अधिकार है? यदि आप सचमुच बहादुर हैं तो एक-दूसरेसे बराबरीकी स्थितिसे लड़िए, लेकिन फिर आपको न्यायालयोंके संरक्षणके लिए नहीं दौड़ना चाहिए। अंग्रेज और जर्मन लड़ाईके मैदानमें लड़े, लेकिन वे न्यायालय नहीं गये। खुलकर ईमानदारी के साथ लड़नेमें कुछ बहादुरी है, लेकिन न्यायालयोंकी ओर दौड़नेमें तो कोई बहादुरी नहीं है। लड़ना ही है तो हिन्दू और मुसलमान जमकर लड़ें, खरे और साफ ढंग से लड़ें और इस तरह अपने झगड़ोंका निबटारा कर लें। तब उनके नाम इतिहास में आदरके साथ लिये जायेंगे। लेकिन इस लड़ाईमें, जिसके बाद अदालतोंका लम्बा चक्कर शुरू होता है, कोई बहादुरी नहीं है। हमारे आजके तरीके बहादुरीके नहीं, बुजदिलीके तरीके हैं। सच्ची बहादुरी तो धर्मकी खातिर अपने प्राणोंकी बलि चढ़ा देने में है, और जो आवश्यक नहीं हैं, जिनका किसी तात्त्विक सिद्धान्तसे कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसे प्रश्नों पर खुशी-खुशी समर्पण कर देनेमें है। यही बारडोलीका सबक है और यदि हम विजयकी खुशीमें अपने-आपको भुला देते हैं तो वह सबक निष्फल साबित होगा। जबतक हम लोग, जो धर्मतः विभिन्न होते हुए भी एक ही देशमें जनमे हैं और एक ही मातृभूमिकी सन्तान हैं, एक-दूसरेको सगे भाईकी तरह प्यार करना नहीं सीखेंगे तबतक बारडोलीकी जैसी जीतका कोई फल नहीं निकलेगा।

जिस दूसरे क्षेत्रमें शुद्धि करनी है, वह है हिन्दू धर्म। क्या आपने इसे इस पर लगे कलंकके गहरे धब्बेसे मुक्त कर दिया है? मैं फिर कहता हूँ कि आत्म-शुद्धिके बिना सच्चा स्वराज्य असम्भव है। कोई दूसरा रास्ता मुझे दिखाई नहीं देता। आप चाहें तो इसे मेरी मजबूरी कह लीजिए, लेकिन तब यह मजबूरी सत्याग्रहकी है। अगर कोई दूसरा रास्ता हो तो वह मुझे मालूम नहीं है। और फिर, इसके अलावा किसी और रास्तेसे जो चीज मिल सकती है वह स्वराज्य नहीं, कुछ और ही होगी।

हमारे कार्यक्रम में तीसरी और अन्तिम बात यह है कि सभी धर्मों और जातियों के लोगोंको देशके नरकंकालोंके प्रति अपना कर्त्तव्य पूरा करना है। इसका एकमात्र उपाय चरखा ही है और यह बात मैं शायद इतनी बार दोहराऊँगा कि आप उसे सुनते-सुनते ऊब जायेंगे। मुझे एक विलक्षण दिशासे चरखेका औचित्य सिद्ध होता देखने में आया है। कृषि आयोग की भारी भरकम और बेढंगी रिपोर्टकी समीक्षा करते हुए सर लल्लूभाई शामलदासने यह दिखाया है कि आयोग के सदस्य सहायक उद्योगों-वाले अध्याय में किस प्रकार चरखा शब्दके प्रयोग से बचते रहे हैं, मानों वह कोई अस्पृश्य वस्तु हो। तो करोड़ों क्षुधार्त्त लोगोंको रोजगार देनेवाली उस चीजसे वे कतराते क्यों रहे? मैं कहूँगा कि चरखेकी शक्तिका मर्म इसी तथ्य में छिपा हुआ है, वे कमसे-कम इसकी आलोचना तो कर सकते थे, या इसका उपहास ही करते। लेकिन नहीं, वे इसमें निहित इसकी अनंत सम्भावनाओंका विचार करते डरते हैं। (जोरोंकी वर्षा होने लगी) ठीक है, दरअसल मुझे जो-कुछ कहना था, कह चुका। आगे कुछ कहने की जरूरत नहीं है।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, १६-८-१९२८