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३२२. पत्र: सतीशचन्द्र दासगुप्तको

१८ सितम्बर, १९२८

प्रिय सतीश बाबू,

आपके पत्र मिले। इससे अधिक अभी कुछ नहीं कह रहा हूँ, क्योंकि २५ तारीखको आपसे मिलनेकी आशा रखता हूँ।

बापू

अंग्रेजी (जी॰ एन॰ १५९६) की फोटो-नकलसे।

 

३२३. जेलोंमें व्यवहार

१६ अगस्तके 'यंग इंडिया' में मैंने साबरमती सदर जेलमें कैदियोंको दिये जानेवाले भोजनके विषय में एक लेख[१] लिखा था। अब सूचना निदेशकने अपनी १२ सितम्बर, १९२८ की विज्ञप्तिमें उसका उत्तर देनेकी कोशिश की है। वे बड़े विश्वासपूर्वक कहते हैं कि ये बातें गलत हैं। विज्ञप्तिसे बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने वस्तु-स्थितिकी खुद जाँच नहीं की, बल्कि उनका यह मत स्वयं उन्हीं लोगों द्वारा दी गई सूचनाओं और जानकारीपर आधारित है जिनपर उपेक्षाका आरोप लगाया गया है। विज्ञप्तिमें कहा गया है कि स्वास्थ्य सम्बन्धी आँकड़ोंको देखनेसे पता चलता है कि भारत में जेलोंकी स्थिति बाहरी आबादीकी स्थिति से बेहतर है। इस कथनका खण्डन करना अनावश्यक है। यह तो एक निर्विवाद तथ्य है, मगर इसका सीधा-सादा कारण यह है कि जेलोंमें सफाई-विषयक नियमोंका पालन बाहरकी बनिस्बत ज्यादा कारगर ढंग से कराया जाता है। लेकिन सफाईकी बेहतर स्थितिसे यह साबित नहीं होता कि कैदियोंके साथ अधिक मानवीयतापूर्ण व्यवहार भी किया जाता है या उनका ज्यादा खयाल रखा जाता है। मेरा कहना तो यह है कि समूची जेल-व्यवस्था में मानवीय भावनाका अभाव है। और यहाँ इस बातका उल्लेख किया जाना तो मुझे बिलकुल अप्रासंगिक लगता है कि जेलोंमें रहनेवाले लोगोंका स्वास्थ्य बाहरकी अपेक्षा सामान्यतः ज्यादा अच्छा है। इसके अतिरिक्त यदि हम उस वर्गके कैदियों को लें जिस वर्गके सत्याग्रही लोग हैं तो यह कथन भी सही सिद्ध नहीं किया जा सकता। हाँ, इसपर निदेशक महोदय अगर चाहते तो यह कह सकते थे कि सत्याग्रही लोग यह तो जानते ही हैं कि जेलकी चारदीवारी में उन्हें मानवीयता नहीं मिलेगी। उक्त लेखमें मैंने जो कुछ कहा, उसका एक औचित्य था, क्योंकि अक्सर यह

 

  1. देखिए "हमारी जेलें", १६-८-१९२८।