३४०. पत्र: रामानन्द चटर्जीको
सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
२२ सितम्बर, १९२८
पत्रके लिए धन्यवाद। बड़ी शर्मिन्दगी के साथ कहना पड़ता है कि डॉ॰ संडरलैंड की पाण्डुलिपिको मैं अब तक हाथ नहीं लगा पाया हूँ। मैंने उसे अपने डेस्क पर रख छोड़ा है और यह बराबर मेरी नजरके सामने रहती है। लेकिन कह नहीं सकता कि इसे कब पढ़ पाऊँगा।
आपने जो शुद्धियाँ भेजी हैं, उन्हें मैं पाण्डुलिपिके साथ सँभालकर रखूँगा।
हृदयसे आपका,
सम्पादक, 'मॉडर्न रिव्यू',
१, अपर सर्कुलर रोड, कलकत्ता
अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३५३४) को फोटो-नकलसे।
३४१ पत्र: भोगीलालको
२२ सितम्बर, १९२८
मैंने बछड़ेको[१] समझ-बूझकर मरवाया, इस सम्बन्धमें अत्यन्त संक्षेप में मेरी दलील यह है:
१. बछड़ेको बहुत कष्ट था। डाक्टरोंका इलाज करवाया किन्तु वे भी आशा छोड़ बैठे थे। हम बछड़ेकी किसी तरह मदद नहीं कर पा रहे थे। चार-पाँच आदमी होने पर ही उसे करवट बदलवाई जा सकती थी। इससे भी उसे कष्ट ही होता था। ऐसी स्थिति में उसके प्राण ले लेना मुझे धर्म जान पड़ा।
२. अन्य प्राणियों पर मैं जो नियम लागू करता हूँ वही नियम ऐसी स्थितिमें मनुष्यपर भी लागू करना मैं धर्म समझता हूँ। मनुष्यके सम्बन्धमें ऐसे प्रसंग बहुत कम आते हैं, क्योंकि हमारे पास उसकी सहायता करनेके कहीं अधिक साधन हैं और हमें उनकी विशेष जानकारी भी है। किन्तु इतिहास में ऐसे प्रसंग मिल जाते हैं तथा इससे मिलते-जुलते अन्य प्रसंगोंकी हम कल्पना कर सकते हैं कि इस तरह वध करने
- ↑ देखिए "पावककी ज्वाला", ३०-९-१९२८।