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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लायक धन अपने उद्योगसे कमा लें तो यह सर्वोत्तम स्वावलम्बन है। ऐसे स्वावलम्बनको मैं असम्भव नहीं मानता। अमेरिकामें असंख्य विद्यार्थी अपनी फीसके लायक कमाई कर लेते हैं और उनके विद्यालय उनकी फीसकी आमदनीसे ही चलते हैं। भारत में सरकारके संरक्षण में चलनेवाले बहुत से विद्यालय केवल अपना खर्च ही नहीं निकाल लेते, उनके मालिक उनसे पर्याप्त धन भी कमा लेते हैं। इसका कारण स्पष्ट है। सरकारी शिक्षाकी बाजार-दर आँकी जा चुकी है और उसकी माँग सरकार द्वारा उक्त शिक्षा देनेकी सामर्थ्य और इच्छाकी अपेक्षा अधिक है। राष्ट्रीय शिक्षाका अभी मूल्यांकन होना है। यदि उसका मूल्यांकन हो गया होता तो हम आज स्वराज्यका उपभोग करते होते। किन्तु मेरी कल्पनाका स्वावलम्बन सरकारके नियन्त्रण में चलनेवाले विद्यालयोंके स्वावलम्बन, और अमेरिकी विद्यालयोंके स्वावलम्बनसे भी भिन्न है।

इस देश में उद्योगोंके वातावरणकी आवश्यकता है। इस देशकी शिक्षामें उसके प्रधान अंग उद्योग होने चाहिए। जब उद्योग शिक्षाके प्रधान अंग होंगे तो विद्यार्थी जो उद्योग सीखेंगे उनसे विद्यालयका खर्च निकाला जा सकेगा। ऐसी व्यवस्थाकी कल्पना श्री मधुसूदनदासने कटकके अपने चर्मालयके सम्बन्धमें की थी। उनकी योजना सुन्दर थी। किन्तु देशमें उद्योगों और चर्मालयोंको प्रोत्साहन देनेवाले वातावरणका अभाव होनेसे यह विफल हो गई। बढ़ईका काम हमारी उच्च शिक्षाका अविभाज्य अंग क्यों न हो? जिस शिक्षामें बुनाईकी व्यवस्था नहीं है, वह तो ऐसी ही है जैसे बिना सूर्यका सौरमण्डल। यदि इस तरहके धन्धे यथार्थ रूपसे सीखे जायें तो अवश्य ही विद्यार्थी अपने विद्यालयोंका खर्च निकाल सकते हैं। यह योजना तभी सफल हो सकती है जब विद्याथियों में शरीर-बल और इच्छा शक्ति हो और शिक्षक उसके लिए अनुकूल वातावरण पैदा करें। यदि एक जुलाहा कबीर हो गया तो दूसरे जुलाहे कबीर नहीं तो गिडवानी, कृपलानी या कालेलकर क्यों नहीं हो सकते? यदि एक मोची शेक्सपीयर हो सका तो अन्य अनेक मोची महाकवि भले ही न हों, रसायनशास्त्र, अर्थशास्त्र और अन्य शास्त्रोंके विशारद क्यों नहीं हो सकते? हमें यह बात समझ लेने की आवश्यकता है कि उद्योग और बौद्धिक ज्ञानमें विरोध मानकर हम बहुत बड़े भ्रममें पड़कर लोगोंकी प्रगतिको रोक रहे हैं। इस बातको समझानेका काम विद्यापीठने अपने हाथ में लिया है। इस बीच राष्ट्रीय शिक्षा में विश्वास करनेवाले लोगोंको बम्बईके राष्ट्रीय विद्यालयको यथाशक्ति सहायता देनी चाहिए। यदि यह सहायता बम्बईके नागरिक नहीं देंगे तो और कौन देगा? मुझे आशा है कि बम्बईमें व्यापारकी मंदीका तर्क देकर कोई इस सहायता से हाथ खींचनेका प्रयत्न नहीं करेगा। बम्बईके नागरिकोंमें चाहे अन्य बहुत-से दोष हों, किन्तु मैंने उनमें कृपणताका दोष तो नहीं देखा। इसलिए मैं आशा करता हूँ कि बम्बईके राष्ट्रप्रेमी सज्जन आचार्य गोकुलभाईकी झोली भरकर उन्हें चित्ता-मुक्त कर देंगे।

[गुजराती से]

नवजीवन, २३-९-१९२८