पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/३५

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१. जलियाँवाला बाग-स्मारकके लिए अभिलेखका मसविदा[१]

यह १३ अप्रैल, १९१९को अंग्रेजोंकी गोलियोंसे शहीद होनेवाले पन्द्रह सौ निर्दोष सिखों, मुसलमानों और हिन्दुओंके सम्मिलित रक्तसे अभिसिंचित पुनीत भूमि है। इसे इसके मालिकोंसे जनतासे इकट्ठा किये गये धनसे खरीदा गया।

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १५३६९) की माइक्रोफिल्मसे।

 


२. शिक्षा‒विषयक प्रश्न - ५[२]

प्रश्न : जबसे आपने हिन्दुस्तानके सार्वजनिक जीवनमें प्रवेश किया है, तभी से नीति-विषयक समस्याओंके उठने पर आपसे निर्णय माँगे जा रहे हैं। लोग आपसे यह जाननेकी अपेक्षा रखते हैं कि अमुक प्रसंगमें अमुक बात उचित है या नहीं। यह वस्तुस्थिति प्रकट करती है कि आपके आन्दोलनका स्वरूप धार्मिक है। क्या आपकी अनुपस्थितिमें ऐसे फैसले बहुमतसे दिये जाना उचित माना जायेगा? और अगर यह उचित न हो तो क्या धर्मविद् लोगोंकी परम्परा खड़ी नहीं करनी पड़ेगी?

उत्तर : मुझसे नीति-विषयक निर्णयोंका माँगा जाना मेरी समझमें सन्तोषकारक स्थिति नहीं है। मेरे किसी भी आन्दोलनका स्वरूप चाहे जैसा भी क्यों न हो, मगर मेरे आन्दोलनोंमें से एक भी ऐसा नहीं है जो धर्म पर आधारित न हो। फिर भी लोग मुझसे हर विषय में प्रश्न करते रहते हैं। इससे मुझे ऐसा जान पड़ता है कि जिन सिद्धान्तोंके अनुसार मैं चलता हूँ, या तो वे समझमें नहीं आते, या लोगोंको उनके औचित्यके बारेमें शंका रहती है या मैं महात्मा कहलाता हूँ और भला आदमी समझा जाता हूँ, इसलिए और चूँकि हमारे लोग श्रद्धालु हैं, और स्वयं विचार करनेका कष्ट नहीं उठाते, इस कारण भी वे मुझसे सवाल पूछते रहते हैं। इससे मेरा 'अहम्' भले ही तुष्ट होता हो, मेरा काम भी भले ही कुछ आगे बढ़ जाता हो, मगर मुझे ऐसा नहीं लगता कि इससे जनताको या पूछनेवाले को बहुत लाभ होता है। बहुत बार मुझे ऐसा लगता है कि अगर मैं फतवे देना बन्द कर सकूं और मुझे जो काम सूझे या प्राप्त हो जाये उसे चुपचाप करता रह सकूँ तो कितना अच्छा हो। किन्तु तब तो मैं जो अखबार निकालता हूँ, सो भी बन्द कर दिये जाने चाहिए। बहुत-सा पत्र-व्यवहार बन्द कर देना चाहिए । मगर अभीतक इतनी हिम्मत मुझमें नहीं आई है। जब आ जायेगी तब यह हो सकेगा। किन्तु यदि ऐसी हिम्मत नहीं आई तो

 

  1. यह १-७-१९२८ को मुल्कराजको लिखे पत्रके साथ भेजा गया था।
  2. इससे पहले के प्रश्नोत्तरोंके लिए देखिए खण्ड ३६, पृष्ठ ३८३-८४, ४०५-६, ४४२-४४ और ४७८-८१।

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