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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं किया है, अथवा कहना चाहिए कि अभी लोगोंमें उसका प्रचार जितना होना चाहिए उतना नहीं हुआ है। डॉ॰ हरिप्रसाद और संगीत शास्त्री खरे यह चाहते हैं कि आर्थिक सहायताकी प्राप्ति और लोगोंमें इस संगीतके प्रति रुचिकी वृद्धि दोनों साथ-साथ चलें। चूँकि इस कार्यके लिए धनी लोगोंसे अभी कम सहायता प्राप्त हो रही है, इसलिए मैं उनकी प्रकाशित योजनाका निम्न अनुच्छेद उद्धृत करता हूँ:[१]

मुझे आशा है कि अहमदाबादके लोग इस योजनाका स्वागत करेंगे और तुरन्त सौ व्यक्ति अपने नाम सदस्योंमें लिखा देंगे। विशेष विवरणके जिज्ञासु शास्त्रीजी से आश्रम के पते पर पत्र व्यवहार करें।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, ३०-९-१९२८

 

३५७. पत्र: मोतीलाल नेहरूको

३० सितम्बर, १९२८

प्रिय मोतीलालजी,

महादेवने मुझे आपका सन्देश दिया। मगर निश्चित रूपसे कहनेको कुछ नहीं था और इधर आश्रमके सिलसिलेमें कामका बोझ बहुत अधिक रहा, इसलिए अबतक आपको पत्र नहीं लिख सका।

महादेवने बताया है कि आप चाहते हैं, मैं अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठकमें शामिल होऊँ। मगर मैं वहाँ क्या करूंगा? कर भी क्या सकता हूँ? मैं जानता हूँ कि राष्ट्रीय कार्यका वह हिस्सा भी उपयोगी है, लेकिन अब उसमें मेरा मन जमता नहीं और उस कार्यकी ओर मेरा अधिकाधिक झुकाव होता जा रहा है, जिसे संक्षेपमें रचनात्मक कार्यके नाम से जाना जाता है। मेरा मतलब सिर्फ खादी से ही नहीं है, क्योंकि मैं जितना ध्यान दे सकता हूँ उतना ध्यान उन दूसरे रचनात्मक कार्योंकी ओर भी दे रहा हूँ जिनका कांग्रेसके कार्यक्रममें उल्लेख भी नहीं है और मैं देखता हूँ कि हर जगह मनोबलको जगानेकी आवश्यकता है और जिस हदतक उसे जगाया जायेगा, उसी हदतक हमारी प्रतिरोधकी शक्ति बढ़ेगी। साफ दीख रहा है कि लखनऊका सर्वसाधारणपर कोई असर नहीं हुआ। जिस गुजरातमें लोग पहले हिन्दू-मुस्लिम झगड़ेका नाम भी नहीं जानते थे, वहीं आज उनके बीच दंगे हो रहे हैं। अभी-अभी खबर मिली है कि कल आश्रमके एक बहादुर नौजवानको दंगाइयोंने लगभग खत्म ही कर दिया था। वह प्रेसकी इमारत में था कि तभी गुंडे लोग उसमें घुस आये, उसमें जो कोई भी था सबको अन्धाधुन्ध मारा-पीटा और फिर इमारतमें

 

  1. इसका अनुवाद यहाँ नहीं दिया जा रहा है। इसमें कोई एक सौ सदस्य बनाने के पश्चात् प्रति सप्ताह संगीत समारोह करनेका प्रस्ताव था।