२८. पत्र : भूपेनको
सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
५ जुलाई, १९२८
आपका पत्र मिला और साथमें बारडोली-संघर्षके लिए भेजा चेक भी।
आपने मुझे याद दिलाया है कि अभी मैं आपके पिछले पत्रोंकी प्राप्ति भी सूचित नहीं कर पाया हूँ। बात यह है कि मेरा पत्रोत्तर देनेका काम बहुत पिछड़ गया है। और आज भी जो आपके पत्रका उत्तर दे पा रहा हूँ वह उसकी बारी आने से पहले ही; क्योंकि मैंने सभी पत्रोंको उत्तर देनेके लिए फाइलमें क्रमसे लगा रखा है और आपके इस पत्रको फाइलमें से ढूँढ़कर निकाला है। मैं 'यंग इंडिया' में संथालोंके बारेमें कुछ लिखनेकी उम्मीद करता हूँ। उससे ज्यादा कुछ करनेको न कहें। मैं बिड़ला-बन्धुओंके नाम आपको कोई पत्र नहीं दे सकता और न अभी कोई अन्य सहायता ही कर सकता हूँ, क्योंकि इस समय तो मैं तमाम झंझटोंसे अलग होकर आश्रममें ही स्थिर हो गया हूँ और अभी कुछ दिन यहीं रहूँगा।
हृदयसे आपका,
अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३४५४) की फोटो-नकलसे।
२९. पत्र : मथुरादास त्रिकमजीको
५ जुलाई, १९२८
इस संसारमें होनेवाले अन्यायोंको तुम अन्याय क्यों मानते हो? संसारका तो अर्थ ही स्वार्थ होता है न? स्वार्थंके बिना संसार कैसे चल सकता है? यों इस संसारमें अलिप्त रहनेकी शिक्षा 'गीता' ने दी है। तुम यह आशा कैसे कर सकते हो कि क्षय या ऐसे ही किसी अन्य रोगके रोगीको स्वार्थी लोग बख्श देंगे? किन्तु तुम्हारे सामने ये ज्ञानकी बातें बघारनेकी कुछ जरूरत है क्या? मकान-मालिकके व्यवहारसे तुम्हें दुःख पहुँचा, मुझे तो इसी बातका आश्चर्य है।
[ गुजरातीसे ]
बापुनी प्रसादी