४६. पत्र : वसुमती पण्डितको
साबरमती आश्रम
१० जुलाई, १९२८
तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारे प्रयासका परिणाम ठीक ही निकलता है। तुम्हारी वाणीमें जितनी मिठास होगी, उसी अनुपातमें उसका प्रभाव ज्यादा पड़ेगा। तुम्हें वहाँकी संस्थाको[१] भी अपनी ही मानकर काम करना चाहिए। लोगोंके दोष बतानेके बाद तुम्हें अपनी वृत्ति उदार रखनी चाहिए ताकि जिसका दोष बताया है उसे दुःख न हो बल्कि वह हमारा आभार माने।
आशा है तुम्हारी तबीयत बहुत अच्छी होगी। यहाँके समाचार एक वाक्यमें निबटाने की बजाय मैंने कुसुमसे ही लिखनेको कह दिया है। इस प्रकार तुम्हें यहाँके अधिकसे-अधिक समाचार मिल जायेंगे और मेरे साथ ही उसके भी लिखनेसे बेकारमें होनेवाला टिकटोंका खर्च भी बच जायेगा। आशा है तुमने वहाँ पाई-पाईका हिसाब रखनेकी आदत बना ली होगी। यदि आदत न बनाई हो तो अब बनाना शुरू कर देना।
रामदेवजी भी मुझसे पत्र व्यवहार करते रहते हैं।
बापूके आशीर्वाद
दुबारा नहीं पढ़ा।
गुजराती (सी॰ डब्ल्यू॰ ४८३) से।
सौजन्य: वसुमती पण्डित
४७. पत्र: हाफिज मुहम्मद अब्दुल शकूरको[२]
१० जुलाई, १९२८
मैं पर्दा-प्रथाके खिलाफ हूँ—और किसी कारणसे नहीं तो इसी कारणसे कि मर्द तो पर्दा नहीं करते।
अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३४४१) की माइक्रोफिल्मसे।