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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

जरूरत नहीं है कि इनके लिए अपने व्यापारको पृथक बस्तियोंमें ले जाना, जहाँ कोई आबादी नहीं है और जहाँ चीजें खरीदनेके लिए लोगोंको आकर्षित नहीं किया जा सकता, असंभव है। इन्हें वहाँ जानेके लिए मजबूर करनेका अर्थ इनके मुंहका कौर छीनना है। और यह काम ट्रान्सवालकी जनताके नामपर किया जा रहा है। मैं कदापि नहीं मान सकता कि इस देशके बहुसंख्यक लोग ऐसी (जिस कृतिकी धमकी दी जा रही है उसके वर्णनमें सही शब्दका प्रयोग करनेपर अगर मुझे क्षमा किया जाये) अमानुषता कर सकते हैं। मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ और मेरे पास इसके लिए अच्छे सबूत है कि जोहानिसबर्गके बहुत-से व्यापारियोंने जब सरकारसे पिछली गणराज्य-सरकारके एशियाई-विरोधी कानूनोंपर अमल करनेका आग्रह किया था तब उनका उद्देश्य यह कदापि नहीं था कि, जिनके पास काननके अनसार परवाने हैं ऐसे वास्तविक शरणार्थीयों को किसी प्रकार हानि पहुँचे। वे चाहते थे—और इसमें वे सफल भी हो गये हैं—कि नये अर्जदारोंको परवाने न दिये जायें, नहीं तो और नये स्वार्थ निर्मित हो जायेंगे। यह एक अजीब बात होगी कि एक ऐसे राष्ट्रके निवासी, जो निहित स्वार्थोंका इतना आदर करते हैं कि गुलामोंके मालिकों और होटलोंके मालिकोंके हितोंको भी—जिन्हें अगर अनैतिक कहें तो अनुचित नहीं होगा—मान्यता दे सकते हैं, इन निर्दोष व्यापारियोंके हितोंकी अवगणना करें।

फिर मेरी इस प्रार्थनाको राज्यके ऊँचेसे ऊँचे अधिकारीके दिये गये वचनका आधार है। पिछले वर्ष इन्हीं दिनों पहले-पहल यह धमकी दी गई थी कि उक्त भारतीयोंको अपने परवाने नये करवानेका हक नहीं होगा। इस ओर श्री चेम्बरलेनका ध्यान आकर्षित किया गया। उस समय उन्होंने कहा था कि वे विश्वास नहीं कर सकते कि इस धमकीपर अमल किया जायेगा। यह उनकी बात है जिन्होंने "एक ब्रिटिश अधिकारीका लिखा पूर्जा बैंक-नोटके समान है" ये प्रसिद्ध शब्द कहे थे। वे समझ रहे थे कि यह सूचना एक स्थानीय अधिकारीको भूलसे जारी हो गई है। इसका परिणाम यह हुआ कि परवाने नये कर दिये गये, यद्यपि इसके लिए दु:खदायक संघर्ष करना पड़ा और सो भी केवल शुरूमें पिछले जून मास और बादमें इस मासकी ३१ तारीखतक के लिए। इसलिए मिली हुई राहतको स्थानीय अधिकारियोंने जब पहली बार तात्कालिक बताया तब लॉर्ड मिलनरसे विनती की गई। उन्होंने इस विषयपर अपने विचार श्री चेम्बरलेनको भेजे गये खरीतेमें प्रकट किये हैं। इसमें (यदि मैने आशय ठीक समझा है तो), परमश्रेष्ठने कहा है कि, वर्तमान भारतीय परवानेदारोंमें से केवल उनको पृथक बस्तियोंमें जाना होगा जो लड़ाईसे पहले ट्रान्सवालमें नहीं रहते थे। मैं पहले ही बता चुका हूँ कि ये भारतीय वास्तविक शरणार्थी हैं।

"लड़ाई छिड़नेके वक्त" ऐसे शब्द है, जिनके कारण अनन्त कठिनाइयाँ और भद्दे भेदभाव पैदा होंगे। इसलिए आप इस प्रश्नपर चाहे जिस दृष्टिसे विचार कीजिए, इसका सरल हल यही है कि इस समय जिन लोगोंके पास परवाने हैं उन सबको मान्यता दे दी जाये। अगर जरूरत हो तो यह शर्त लगाई जा सकती है: "जो लड़ाईसे पहले ट्रान्सवालमें व्यापार करते थे।"

मेरे देश भाइयोंपर अनुचित होड़का आरोप लगाया जाता है। मैं यहाँ तो उसका संक्षेपमें ही जवाब दे सकता हूँ। हाथ कंगनको आरसीकी जरूरत नहीं होती। क्या यह सत्य नहीं है। कि इस होड़के बावजूद यूरोपीय व्यापारी ही सर्वत्र प्रबल है? यह सच है कि भारतीय रहनसहन मितव्ययी और सादा होता है। परन्तु वह अपने व्यापारमें भी सीधा-सादा और संगठनकी योग्यतामें गरीब है। उसके इस कलामें निपुण बनने और उसकी होड़से भय होने योग्य परिस्थिति आनेमें बहुत दिन लगेंगे। कहा जा सकता है कि यदि भारतीयोंका आगमन बेरोक-टोक जारी रहा तो उनकी संख्या बढ़ जायेगी और तब उसका असर अवश्य होगा। परन्तु मैं तो