बहुत धीरजके साथ इस प्रश्नको जाँच होनी चाहिए। और हमें तो जरा भी सन्देह नहीं कि यूरोपीयोंका विरोध मोल लिये बिना मामला शान्तिके साथ सुलझ सकता है। अगर श्री चैमनेके हाथोंमें सत्ता है तो क्या वे इस अवसरके अनुरूप काम करेंगे? अगर उनके हाथोंमें यह सत्ता नहीं है तो क्या सरकार भारतीयोंके सामने यह निरर्थक नाम और पद झुलाते रहना बन्द करनेकी कृपा करेगी?
इंडियन ओपिनियन, ३-१२-१९०३
कुछ भारतीय व्यापारियोंकी ओरसे, जिनकी किस्मत इस वर्षकी सूचना ३५६ से सम्बन्धित सरकारके निर्णयपर लटक रही है, मैं दो शब्द कहना चाहता हूँ। मुझे विश्वास है इसे प्रकाशित करके आप अवश्य मुझे अपने सौजन्यका लाभ उठाने देंगे।
प्रस्तुत सूचनाका तकाजा है कि इस वर्षके अन्ततक सारे भारतीय बाजारों में चले जायें और वहीं व्यापार करें या रहें। तथापि वह उन लोगोंको इससे बरी करती है जिनके पास लड़ाई शुरू होते समय बाजारों और पृथक बस्तियोंके बाहर व्यापार करनेके परवाने थे। कुछ एशियाइयोंको निवासके बारेमें अपवाद-स्वरूप बरी रखा जा सकता है, इसका हम इस समय जिक्र नहीं करेंगे, क्योंकि यहाँ वह प्रश्न अप्रस्तुत है। सभी जानते हैं कि लड़ाईसे पहले बहुतसे भारतीय बिना परवानोंके पृथक बस्तियोंसे बाहर व्यापार कर रहे थे। ब्रिटिश मन्त्रालय (डाउनिंग स्ट्रीट) के आदेशानुसार ब्रिटिश एजेंटकी छायाके कारण वे ऐसा कर पा रहे थे। अर्थात्, सरकार ऐसे व्यापारियोंका अपवाद करनेकी जरूरत मानती है, जिनके पास परवाने नहीं थे, परन्तु जो सिद्ध कर सकते हैं कि वे लड़ाई छिड़नेके समय पृथक बस्तियोंसे बाहर व्यापार कर रहे थे।
एक वर्गके लोग और रह जाते हैं, जो लड़ाईके पहले व्यापार तो नहीं करते थे, परन्तु जिन्हें शरणार्थी होनेके नाते पिछले वर्ष बस्तियोंसे बाहर व्यापार करनेके परवाने ब्रिटिश अधिकारियोंने दे दिये थे और जिनपर ऐसा करते समय किसी प्रकारकी शर्ते या बन्दिशें नहीं लगाई गई थीं। इनमें से अधिकांश लोग जोहानिसबर्गमें हैं। मेरी नम्र राय है कि इनके निहित स्वार्थोंकी भी उसी प्रकार रक्षा की जानी चाहिए, जैसे कि उन अन्य अधिक भाग्यशाली भाइयोंकी जो लड़ाईसे पहले व्यापार करते थे। इनका व्यापार भी काफी अच्छा जम गया है। मुझे यह कहनेकी
- ↑ ट्रान्सवाल लीडरसे प्रकाशित।