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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/११०

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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय


बाजारों अथवा पृथक् बस्तियोंके बाहर व्यापार करनेवाले ब्रिटिश भारतीय व्यापारियोंको तीन वर्गोमें विभक्त किया जा सकता है:

पहला : जिनके पास युद्ध छिड़नेके समय बाजारों के बाहर व्यापार करनेके परवाने थे।

दूसरा : वे जो बिना परवानोंके इसी तरह व्यापार करते थे।

तीसरा : वे जो लड़ाई छिड़नेके समय व्यापार नहीं करते थे, परन्तु जिन्हें इसके पहलेसे ट्रान्सवालके सच्चे निवासी होनेके कारण पिछले वर्ष ब्रिटिश अधिकारियोंने बगैर किसी शर्त या प्रतिबन्धके बाजारोंसे बाहर व्यापार करनेके परवाने दिये थे।

इनमें दूसरे वर्गके व्यापारियोंकी संख्या सबसे अधिक है।

तीसरे वर्गके व्यापारियोंकी संख्या बहुत छोटी है और उनमें से अधिक जोहानिसबर्गमें ही बसे हुए हैं।

तीसरे वर्गवालोंके लिए बाजारोंमें हटाया जाना बड़ी गंभीर बात होगी। वहाँ उनके लिए किसी प्रकारका भी व्यापार कर सकना असम्भव है। और इस समय गोरे निवासियों और काफिरोंके बीच उनका जो व्यापार फैला हुआ है और जिसके लिए उनके पास कानूनी परवाने हैं उसे तो वे किसी प्रकार वहाँ नहीं चला सकेंगे।

बाजारकी जगहोंकी अनुपयुक्तताके अलावा भी प्रार्थी इस माननीय सदनका ध्यान नीचे लिखी बातोंकी तरफ खींचना चाहता है:

पिछले वर्ष लगभग इन्हीं दिनोंकी बात है, पीटर्सबर्गमें ऊपर बताये गये तीसरे वर्गके तमाम ब्रिटिश भारतीयोंको सूचनाएं मिली थी कि उनके परवानोंकी अवधि पूरी हो जानेपर वे नये नहीं किये जायेंगे। इसलिए तत्कालीन परममाननीय उपनिवेश-मन्त्रीका ध्यान उनकी ट्रान्सवाल-यात्राके समय इस प्रश्नकी तरफ खींचा गया था। उन्होंने कहा था कि इस धमकीपर अमल नहीं हो सकेगा। और इसके फलस्वरूप अबतक ये परवाने नये किये जाते रहे है।

परमश्रेष्ठ लॉर्ड मिलनरने भी तारीख ११ मई १९०३ को परम माननीय श्री चेम्बरलेनको भेजे गये अपने खरीतेमें इस प्रश्नपर जोर दिया था।

परमश्रेष्ठ कहते हैं:

परन्तु सरकार इस बातकी चिन्तामें है कि वह इस कामको (कानूनके अमलको) देशमें पहलेसे बसे भारतीयोंका बहुत खयाल रखते हुए और निहित स्वार्थोका—जहाँ इन्हें कानूनके विरुद्ध भी विकसित होने दिया गया है—सबसे अधिक विचार रखते हुए, करे। … लड़ाईसे पहले जो एशियाई लोग उपनिवेशमें थे केवल उन्हींका सवाल होता तो महामहिमकी सरकारके मनके लायक नये कानून बननेतक हम राह देख सकते थे। परन्तु यहाँ तो नये आनेवालोंका ताँता लगा रहता है और वे व्यापार करने के परवाने माँगते रहते हैं … ऐसी दशामें एकदम खामोश बैठे रहना असम्भव हो गया है।

इसी खरीते में परमश्रेष्ठने आगे लिखा है:

जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, लड़ाईके पहलेसे यहाँ जिन एशियाइयोंके जो निहित स्वार्थ थे उनको सरकार स्वीकार करने के लिए तैयार है। परन्तु दूसरी तरफ, उसे लगता है कि कानूनके खिलाफ नये निहित स्वार्थोंको खड़े होने देना उचित नहीं होगा। लड़ाईके दरमियान और युद्धविरामके बाद, कितने ही नवागन्तुकोंके नाम व्यापारके अस्थायी परवाने जारी कर दिये गये थे। इन परवानोंकी मियाद ३१ दिसम्बर १९०३ तकके लिए बढ़ा