आठ
उत्तेजनासे दूर रहनेकी अपील करते हुए उन्होंने लिखा: "ब्रिटिश शासनका इतिहास सांविधानिक विकासका इतिहास है। ब्रिटिश झंडे के नीचे कानूनकी इज्जत करना लोगोंके स्वभावका हिस्सा बन गया है" ("पॉचेफस्ट्रूमके पहरेदार", २४-१२-१९०४)।
गांधीजीने इस समयके लेखों और विशेषतः दादाभाई नौरोजीको लिखे गये अपने पत्रोंमें बार-बार अंग्रेजोंसे विवेक रखकर अपने पिछले वचनों और आश्वासनोंपर कायम रहनेकी अपील की है। किन्तु कभी-कभी उनका रुख कठोर हो जाता है; जैसे उस समय, जब वे ट्रान्सवालके सम्बन्ध में कहते हैं: "यहाँ रहनेवाली आबादीके साथ या तो अच्छा बरताव किया जाये या उसे देशसे खदेड़ दिया जाये। उनको देशसे निकालनेकी कार्रवाई सख्त तो होगी किन्तु वह संखियाका जहर जैसा देकर धीरे-धीरे किन्तु निश्चित रूपसे प्राण लेनेकी क्रियाकी अपेक्षा कहीं अधिक सदय होगी" (८-१०-१९०४)। कुछ महीनोंके बाद गांधीजीने देखा कि यदि ब्रिटिश भारतीय, कानूनसे प्राप्त अपने अधिकारोंके मुताबिक मनचाही जगह व्यापार करना चाहते हों और अपने "व्यापार, सम्पतिके स्वामित्व और आवागमनके अधिकारोंके सम्बन्धमें यूरोपीयोंके समान आधारपर रखे जानेके दावेकी पूर्ति" चाहते हों तो उन्हें जीवन-मरणके संघर्ष में उतरना पड़ेगा (२८-६-१९०५)
उन्होंने अपनी दृष्टिको एक क्षणके लिए भी विद्वेष, रोष या ओछेपनके कारण धुंधला नहीं होने दिया। व्यक्तियों और राष्ट्रोंमें जो गुण था उसे स्वीकार किया। यहाँतक कि सर जॉन रॉबिन्सन, डॉ. जेमिसन और भूतपूर्व राष्ट्रपति क्रूगर जैसे विवादास्पद व्यक्तियोंमें उन्होंने कुछ-न-कुछ सराहनीय गुण देखे। राष्ट्रपति क्रूगर उनकी दृष्टिमें एक महान और ईश्वरपरायण व्यक्ति थे, जो "कभी-कभी गलत दिशामें जानेवाली एकनिष्ठ देशभक्ति" का एक उदाहरण छोड़ गये हैं ("स्वर्गीय श्री क्रूगर", २३-७-१९०४)।
तफ़सीलकी छोटीसे-छोटी बात उनके लिए छोटी नहीं थी। अन्यायसे युद्ध करते हुए "सामान्य जीवनकी छोटी-छोटी बातोंकी" उन्होंने कभी उपेक्षा नहीं की। १७ और १९ अप्रैल १९०५ को छगनलाल गांधीके नाम लिखे गये पत्रोंमें उन्होंने बाहरसे आये हुए काम और अखबारको निःशुल्क भेजी जानेवाली प्रतियोंकी लम्बी सूचीके सम्बन्धमें बड़ी फिक्रके साथ पूछताछ की है; और अच्छी रोटी बनानेके लिए मैदे और घीके विधिवत् मिश्रणके सम्बन्धमें तफ़सीलवार हिदायतें भी दी है।
राजनीतिक सफलता और असफलताके समस्त उतार-चढ़ावोंसे गुजरते हुए गांधीजीने प्रारम्भसे ही इंडियन ओपिनियनका उपयोग "सम्पादक और पाठकोंके बीच हार्दिक और स्वच्छ सम्बन्धोंकी स्थापना" के लिए किया। उनका लेखन सोद्देश्य और सही दिशामें होता था। उन्होंने गुजराती और अंग्रेजी दोनोंमें एक ही विषयसे सम्बन्धित लेख लिखे हैं, किन्तु गुजराती लेख अपेक्षाकृत विविध ज्ञानपूर्ण और लोक-कल्याणकी भावनासे भरे हुए हैं, जब कि अंग्रेजीमें लिखे हुए लेख सैद्धान्तिक अधिक है। इन दोनोंकी तुलना करनेसे यह विदित होता है कि पाठकोंका लेखनकी शैली निश्चित करने में कितना बड़ा हाथ होता है। उनके "आत्मत्याग" और "फुटकर मिनिटोंका सच्चा मूल्य" शीर्षक लेख, उनके धर्म-सम्बन्धी व्याख्यानोंकी भाँति ही, यह जाहिर करते हैं कि वे अपने धन्धे या सार्वजनिक कार्योंमें कितने ही व्यस्त क्यों न रहे हों, किन्तु उनके कारण उनकी दृष्टि से जीवनके आधारभूत सत्य कभी ओझल नहीं होते थे।