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सात

ब्रिटिश शासन-कालमें और भी कठोरतासे पालन किया जा रहा था। जनवरी १९०४ के "सिंहावलोकन" शीर्षक लेखमें और दिसम्बर १९०४ के "सालाना लेखा-जोखा" शीर्षक लेखमें गांधीजीने भारतीयोंके आसपास छाई हुई घोर घटाओंका चित्र खींचा है और उन शुभ लक्षणोंका भी उल्लेख किया है जो उन्हें मानव स्वभावके प्रति अपने अटूट विश्वासके कारण दिखाई देते थे। उन्होंने कहा कि आपत्ति मनुष्यको शोध कर खरा बनाती है। वे कहते हैं: "हमारा काम केवल यह है कि जिसे हम सही और न्यायपूर्ण समझते हैं उसे बराबर करते रहें और परिणाम भगवान पर छोड़ दें, जिसकी अनुमति या जानकारीके बिना पत्ता भी नहीं हिलता।"

गिरमिटिया भारतीय मजदूरोंकी समस्याके सम्बन्धमें इस समयतक गांधीजीका रुख सख्त हो चुका था। उन्होंने भारत-सरकारके इस निर्णयका स्वागत किया कि जबतक ट्रान्सवालमें पहलेसे आबाद भारतीयोंकी अवस्थामें सुधार नहीं किया जाता तबतक भारतसे और अधिक मजदूरोंके प्रवासकी अनुमति नहीं दी जायेगी। उन्होंने गिरमिटिया एशियाई मजदूरोंका आयात करने और स्वतन्त्र एशियाइयोंको अमानुषताके साथ दास बनाये रखनेके प्रयत्नोंका विरोध किया। किन्तु इसका कारण कोई कोरी आदर्शवादी कल्पना नहीं थी, बल्कि वे भावी पीढ़ियोंके कल्याणकी गहरी चिन्ता और उनके प्रति हार्दिक सहानुभूतिसे प्रेरित होकर यह करनेपर विवश हुए थे। किसी राजनीतिक या आर्थिक सिद्धान्तसे नहीं, उन्होंने मानव-जातिके प्रति अपने प्रेमके कारण श्री स्किनरकी खानों में काम करनेवाले चीनी मजदूरोंके सम्बन्धमें पेश की गई रिपोर्टकी आलोचना की। उसी विचारसे प्रेरित होकर उन्होंने श्री क्रेसवेलके सोनेकी खानकी कम्पनीकी मैनेजरीसे इस्तीफा देनेपर सराहना भी की। श्री क्रेसवेलने इस्तीफा इसलिए दिया था कि मालिक अच्छे वेतनपर गोरे मजदूरोंकी नियुक्तिका विरोध करते थे और केवल मुनाफेकी चिन्तामें बाहरसे लाये हुए मजदूरोंको कम मजदूरी देकर कामपर लगाना चाहते थे ("श्री केसवेलका बमगोला", २६-११-१९०३)। गांधीजी साधारणतया आफ्रिकियों या रंगदार लोगोंके कष्टोंकी चर्चा कभीकभी ही किया करते थे। युवक नेता गांधीके आचरणमें स्वदेशीकी भावना समा गई थी और उनका व्यवहार, साथी कार्यकर्ताओंके व्यवहारकी वे जितनी जिम्मेदारी ले सकते थे, उसीसे मर्यादित होता था।

गांधीजी सदा समझौतेके लिए तैयार रहते थे—ऐसे समझौतेके लिए, जिससे यूरोपीयोंकी उचित इच्छाओं और हितोंकी पूर्ति भी पूर्ण रूपसे होती हो। उन्होंने इस बातका ध्यान रखकर ही प्रवास और व्यापारिक परवानोंके सम्बन्धमें ब्रिटिश भारतीय संघके उचित प्रस्तावोंका स्वागत किया। देशमें भारतीयोंकी "बाढ़" की सम्भावनाको रोकने के उद्देश्यसे केपके कानूनके नमूनेका प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियम सुझाया और भारतीयोंके कारण यूरोपीय व्यापारको अनुचित रूपसे हानि न हो इसलिए उन्होंने सर्वोच्च न्यायालयमें अपीलके अधिकारके साथ, परवानोंपर नगरपालिकाओंके नियन्त्रणका सिद्धान्त स्वीकार किया। ("पत्र:स्टारको," ३-९-१९०४) । उन्होंने लेडीस्मिथके भारतीय दुकानदारोंको टाउन क्लार्ककी हिदायतोंपर अमल करने और अपनी दुकानें जल्दी बन्द करनेकी सलाह दी, ताकि यूरोपीयोंका विरोध समाप्त हो जाये। जब दीर्घकालीन और कठिन संघर्ष के बाद हबीब मोटनके परीक्षात्मक मुकदमेमें भारतीय व्यापारियोंकी जीत हो गई, तब भी गांधीजीने उन्हें समझाया कि यद्यपि कानूनने उन्हें चाहे जहाँ व्यापार करनेकी स्वतन्त्रता दे दी है, तो भी वे इसका पूरा लाभ न उठायें; बल्कि अपनी जीतके फलोंका उपभोग "धीरज और दूरदर्शितापूर्ण संयमसे" करें। अंग्रेजोंकी न्याय-भावनाकी सराहना करते हुए उन्होंने लिखा: "ब्रिटिश राज्यमें द्वेषभाव कितना ही तीन क्यों न हो, सर्वोच्च न्यायालयोंके रूपमें सुरक्षाका एक आश्रय स्थान हमेशा उपलब्ध है।" ("सुयोग्य विजय", १४-५-१९०४) । पाँचेफस्ट्रमके "पहरेदारों" को हिंसा और