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१७७. नेटाल प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियम और उसका अमल[१]

इस अधिनियम के अन्तर्गत हालमें दो काफी महत्त्वपूर्ण मुकदमे मैरित्सबर्ग में चलाये गये हैं। वे दोनों ब्रिटिश भारतीयोंके खिलाफ थे। मुकदमोंकी कार्यवाहियोंके पूरे विवरण हम दूसरे स्तम्भमें दे रहे हैं। दयाल ऊका का मामला हमें बहुत सख्त जान पड़ता है। यह देखते हुए कि अपील दर्ज कर ली गई है, हम उसपर कोई लम्बी टीका-टिप्पणी नहीं करेंगे। किन्तु गवाहीसे जो तथ्य प्रकट होते हैं उनके अनुसार प्रतिवादी पाँच वर्षसे अधिक उपनिवेशमें रह चुका है और भारतसे अपनी वापसीके समय जमीनपर पाँव धरनेके पहले उसने जहाजपर किसीको आठ पौंड अदा किये हैं। इस्तगासेकी ओरसे इस गवाहीके खिलाफ कुछ पेश नहीं किया गया; किन्तु न्याया-धीराने अपराधी द्वारा दिये गये प्रमाणपर भरोसा नहीं किया और उसे दो महीनेकी कैदकी सजा दे दी—अगर अपराधीको इसके पहले देशसे निकाल दिया जाये तो बात अलग है। इसलिए यदि न्यायाधीशका फैसला बरकरार रखा जाता है तो, केवल शपथपूर्वक ही नहीं बल्कि किसी अन्य प्रमाणके बलपर, जबतक कोई यह सिद्ध नहीं कर सकता कि वह अधिनियम स्वीकृत होनेके पहले उपनिवेशमें रह चुका है तबतक, जान पड़ता है, हरएक ब्रिटिश भारतीय नवागन्तुक माना जायेगा। यदि ऐसी दृष्टि अपनाई गई तो उपनिवेशमें किसी भी भारतीयकी स्थिति निरापद नहीं रहेगी। खैर, जबतक अपीलका फैसला नहीं हो जाता, हमें इन असाधारण मामलोंपर और कुछ कहना स्थगित रखना चाहिए। फिलहाल हम सरकारसे इन मुकदमोंको रोकनेकी प्रार्थना करके सन्तोष मानेंगे क्योंकि यह उसका कर्त्तव्य है कि वह उपनिवेशमें निषिद्ध प्रवासियोंका चोरी-चपाटीसे घुसना रोके। हमारी नम्र सम्मतिमें जो लोग पहलेसे उपनिवेशमें हैं और जो पूर्व- निवास सम्बन्धी प्रतिबन्धके रहते हुए भी प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत नियुक्त अफसरोंकी सावधानीके बावजूद यहाँ उतर चुके हैं उन्हें सताना सरासर ज्यादती करना होगा।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २-७-१९०४
  1. इंडियन ओपिनियनका जून २५, १९०४ का अंक उपलब्ध नहीं है। इसलिए यदि उसमें गांधीजीका कोई लेख रहा हो तो उसको देना सम्भव नहीं है।