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प्रार्थनापत्र: उपनिवेश सचिवको


निवेशमें मिलता है। उस उपनिवेशमें भारतीय मजदूर कभी नहीं लाये गये, परन्तु पिछले सालतक जो भी भारतीय वहाँ जाना चाहता था, जा सकता था। वहाँ भारतीयोंको जमीनका मालिक बननेका अधिकार है, वे बिना किसी रोक-टोकके व्यापारिक परवाने ले सकते हैं और सम्राट्के दूसरे प्रजाजनोंको प्राप्त लगभग सभी अधिकारोंका उपभोग कर रहे हैं। फिर भी उनकी स्पर्धा से यूरोपीय समाजपर किसी भी प्रकारका विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा है। हाँ, उनकी मौजूदगीसे स्वस्थ स्पर्धाको प्रोत्साहन मिला है। ट्रान्सवालकी अपेक्षा केपमें कहीं अधिक भारतीय हैं, परन्तु जमीन के स्वामित्वपर उनका कोई खास असर नहीं पड़ा है।

इसलिए मेरा संघ निवेदन करना चाहता है कि जहाँतक भूतकालीन स्थितिसे इस प्रश्न-पर प्रकाश पड़ता है, परमश्रेष्ठ द्वारा प्रकट किये हुए अन्देशे सही साबित नहीं होते।

ब्रिटिश भारतीयोंका विरोध ट्रान्सवालके व्यापारी वर्गतक ही सीमित है और इसलिए विशुद्ध रूप से स्वार्थजनित है। यह मेरे संघकी नम्र सम्मतिमें इस बातसे स्पष्ट है कि भारतीयोंका बहुत-कुछ कारबार यूरोपीयोंकी सहायतापर निर्भर है। यूरोपीय बैंक उन्हें विश्वास-योग्य पाकर ही रुपया उधार देते हैं। यूरोपीय कोठियाँ उन्हें उधार माल बेचती हैं और यूरोपीय ग्राहक उनसे चीजें खरीदते हैं। उनके सबसे अच्छे ग्राहक डच लोग हैं। यहाँ यह उल्लेख किया जा सकता है कि बोअरोंके शासन कालमें भी एक प्रार्थनापत्र स्वर्गीय राष्ट्रपति क्रूगरको दिया गया था जिसपर बड़ी संख्यामें डचों और अंग्रेजों दोनोंके हस्ताक्षर थे और भारतीयोंकी उपस्थितिका समर्थन किया गया था।

यह सही है कि बोअरोंके शासन कालमें गोरों और रंगदार लोगोंकी सामाजिक और राज-नीतिक समानता कभी स्वीकार नहीं की गई थी, परन्तु यह प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया जायेगा कि भारतीय इन दोनोंमें से किसी भी क्षेत्र में नहीं पड़े हैं और इससे सावधानीसे बचते रहे हैं।

परमश्रेष्ठने जो प्रस्ताव किये हैं और जिन्हें उन्होंने “रियायतें" कहा है, मेरा संघ उन प्रस्तावोंकी चर्चा करने की अनुमति माँगता है। परन्तु ये प्रस्ताव मेरे संघके विनम्र मतसे उस थोड़ीसी स्वतन्त्रता पर भी नया आघात करते हैं जो १८८५ के कानून ३के मातहत, जिसका स्थान ये लेना चाहते हैं, ब्रिटिश भारतीयोंको प्राप्त है। (१) आज उस समयके कानूनका जो अर्थ लगाया जाता है उसके अनुसार भारतीय जहाँ चाहें वहाँ व्यापार करनेको स्वतन्त्र हैं। और वे रिवाजमें भी हमेशा स्वतन्त्र रहे हैं।

(२) यद्यपि उस कानूनमें एक ऐसी धारा है जिससे खास बस्तियों-मुहल्लों या सड़कों में ही निवास सीमित किया जा सकता है तथापि, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालयने माना है, उसपर अमल नहीं होता; क्योंकि कानूनमें उसकी मंजूरी नहीं है। इसलिए ब्रिटिश भारतीय जहाँ चाहें वहाँ रहनेके लिए स्वतन्त्र हैं। वे अचल सम्पत्तिके मालिक नहीं हो सकते, परन्तु पट्टे लेनेके अधिकारी हैं।

(३) एशियाइयोंके स्वतन्त्र प्रवासपर कानूनमें किसी भी तरह की पाबन्दी नहीं है।

परमश्रेष्ठके प्रस्तावोंके अनुसार बाजारोंसे बाहर व्यापार करनेके परवाने सिर्फ उन्हीं लोगों को देना जारी रखा जायेगा जो लड़ाई छिड़नेके समय व्यापार कर रहे थे और वे भी उपनिवेश में परवानेदारके निवास-कालतक ही चलेंगे। यह शर्त ऐसी है जिससे उन थोड़ेसे आदमियोंका व्यापार बढ़नेकी सम्भावना भी बहुत कम हो जाती है, जो युद्धारम्भके समय व्यव-साय कर रहे थे। इसलिए इस प्रस्तावका अन्तिम परिणाम यही होगा कि पृथक् बस्तियोंके अलावा सब स्थानोंमें ब्रिटिश भारतीय व्यापारियोंका पूरा खात्मा हो जायेगा।