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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


मेरा संघ सादर निवेदन करता है कि नेटालकी स्थितिसे तुलना करना ब्रिटिश भारतीय समाजके प्रति बड़ा अन्याय है, क्योंकि नेटाल और ट्रान्सवालमें कोई समता नहीं है। नेटाल ३० सालसे अधिक समयसे भारतीय मजदूर बुला रहा है और वहाँकी अधिकांश भारतीय आबादी गिरमिटिया है। इस उपनिवेशमें जिन स्वतन्त्र भारतीयोंने प्रवेश किया है उनकी संख्या दस हजारसे कम है। परन्तु वहाँ भी मेरा संघ निवेदन करता है कि, फुटकर व्यापार सर्वथा भारतीयों के हाथोंमें नहीं आया है। तमाम महत्त्वपूर्ण नगरोंमें वह अब भी यूरोपीयोंके नियन्त्रणमें है।

भारतीय नेटालके लिए कितने मूल्यवान हैं इसकी गवाही पिछले साल सर जेम्स हलेटने इन शब्दोंमें दी थी:

अरब लोग सीमित संख्यामें हैं और प्रायः सभी व्यापारी हैं। साधारण छोटा व्यापारी अरबके साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता। उपनिवेशका काफिरोंके साथ फुटकर व्यापार प्रायः सारा का सारा अरबों के हाथमें है। देहाती क्षेत्रोंमें मुझे इसपर आपत्ति नहीं है, क्योंकि मैं सोचता हूँ कि साधारण गोरे युवक या युवती देहाती काफिर बस्तियों-में वस्तु भण्डारोंकी देख-रेखके बजाय कोई और अच्छा काम कर सकते हैं। साधारण गोरे आदमीकी आवश्यकताओंकी अपेक्षा अरब लोगोंकी आवश्यकताएँ कम हैं। वे कम मुनाफेपर माल बेचते हैं और एक खास हदतक वतनियोंके साथ यूरोपीयोंकी अपेक्षा अधिक अच्छा व्यवहार करते हैं। देहाती वस्तु भण्डारोंमें यूरोपीय बहुत अधिक मुनाफा चाहते हैं। मोटे तौरपर देखनेपर यह खयाल बनता है कि अरब व्यापारियोंका व्यापार देहाती क्षेत्रोंके अलावा नगरोंमें भी दिनों-दिन बढ़ रहा है। उन्हें किसी हदतक गोरे-निवासियोंका समर्थन मिलता है। गोरे निवासी अरबोंकी शिकायत तो करते हैं, और वह कुछ-कुछ वाजिब भी है; किन्तु फिर भी वे उन्हें किसी मदद देते हैं, क्योंकि उन्हें अन्य स्थानकी अपेक्षा अरबोंसे सस्ता माल मिल जाता है। परन्तु इन सब बातोंका यह अर्थ नहीं है कि गोरे लोग व्यापारसे बिलकुल निकाल दिये गये हैं। (यह बात गवाहने जोर देकर कही )।


वहाँके अधिकांश सार्वजनिक कार्यकर्ताओंका विश्वास है कि नेटालकी समृद्धि भारतीयोंकी उपस्थिति के कारण है। कुछ वर्ष पहले विशेष आयुक्तोंने सारे प्रश्नकी, खास तौरपर ब्रिटिश भारतीय व्यापारियोंके सम्बन्धमें, जिनके विरुद्ध परमश्रेष्टने बहुत-सी दलीलें पेश करनेकी कृपा की है, जाँच करके कहा था:

सूक्ष्म निरीक्षणके आधारपर हमें अपनी यह पक्की राय दर्ज कराते हुए सन्तोष होता है कि इन व्यापारियोंकी मौजूदगीसे सारे उपनिवेशको लाभ पहुँचा है और उनको क्षति पहुँचानेके लिए कानून बनाना बे-इन्साफी नहीं तो नासमझी जरूर होगी।

वे लगभग सभी मुसलमान हैं जो शराबसे या तो बिलकुल परहेज करनेवाले हैं या संयम के साथ पीते हैं। स्वभावसे वे मितव्ययी और कानून-पालक हैं।

जिन ७२ यूरोपीय गवाहोंने आयोगके सामने अपनी गवाहियाँ दीं उनमें से लगभग प्रत्येकने, जहाँ भारतीयोंकी उपस्थितिसे उपनिवेशपर होनेवाले असरका जिक्र आया है, यह कहा है कि वे उपनिवेशकी भलाईके खयालसे अनिवार्य हैं।

परन्तु शायद सबसे ज्यादा चकित करनेवाला उदाहरण, जिससे यह सिद्ध होता है कि भार-तीय गोरोंके प्रभुत्वके लिए वैसे खतरनाक नहीं हैं जैसे आम तौरपर समझे जाते हैं, केप उप-