किन्तु सारे प्रश्नका मर्म यह है कि भविष्य की बात सोचकर पेशगी कानून बनाया जाय और मेरा संघ यह कहे बिना नहीं रह सकता कि चूँकि भविष्यकी रक्षा नेटाल या केपके ढंगपर प्रवासी अधिनियम बनाकर की जा रही है इसलिए जीवनके किसी भी क्षेत्रमें इस भयका कोई कारण दिखाई नहीं देता कि भारतीय यूरोपीयोंपर छा जायेंगे । सतत वर्द्धमान यूरोपीय आबादीके मुकाबलेमें भारतीय आबादी, जो अनुमानसे १२,००० होगी, सदा एक जैसी रहेगी। इस संख्या में केवल थोडीसी वृद्धि उन लोगोंसे होगी जो शिक्षा-सम्बन्धी कसौटीके अनुसार ट्रान्सवालमें प्रवेश कर सकेंगे । उदाहरणार्थं नेटालमें प्रवासी अधिनियम पाँच सालसे लागू है। इस कालमें इस परीक्षाके अनुसार, जब कि उसका एक सीधा और निश्चित रूप था, केवल १५८ नये आदमी उपनिवेशमें प्रवेश पा सके हैं। जैसा परमश्रेष्ठको मालूम है, अब यह परीक्षा बहुत कड़ी और केप कानूनकी जैसी कर दी गई है। इसलिए उन लोगोंके सिवा, जिन्हें अंग्रेजी भाषाका बहुत अच्छा ज्ञान हो, अन्य किसीका उपनिवेशमें प्रवेश असम्भव है । और यद्यपि आम लोगोंके विद्वेषका खयाल रखते हुए मेरा संघ उन आशंकाओंसे सहमत नहीं है जो परमश्रेष्ठने प्रकट की हैं, फिर भी वह तबतक इस पाबन्दीको लगानेकी बात मंजूर करनेके लिए तैयार है जबतक मौजूदा कारोबार चलाने के लिए बिलकुल जरूरी नौकरों और विक्रेताओंको उपनिवेशमें प्रवेशकी उचित सुविधाएँ दी जाती रहें ।
जो लोग लड़ाईसे पहले ट्रान्सवालमें परवानोंसे या उनके बिना कभी व्यापार नहीं करते थे उनके नाम व्यापारके नये परवाने जारी करनेके सम्बन्धमें, मेरा संघ आम लोगोंका द्वेष शान्त करने और यथासम्भव यूरोपीय उपनिवेशियोंकी इच्छाएँ पूरी करनेकी दृष्टिसे एक आम कानून माननेके लिए तैयार है और ऐसे परवाने देना या न देना सरकार या स्थानीय निकायोंपर छोड़ता है । परन्तु शर्त यह होगी कि स्पष्ट अन्याय होनेकी दशामें, उदाहरणार्थं, जहाँ नये प्रार्थीका समर्थन अधिकांश यूरोपीय करें वहाँ, सर्वोच्च न्यायालयमें अपील की जा सके। इस सबके लिए भी शर्त यह होगी कि मौजूदा परवानोंमें कोई दखल नहीं दिया जायेगा। इसमें जहाँ मकान-दुकान साफ-सुथरी हालत में न रखे जायें और परवानेदार हिसाब-किताब सम्बन्धी नियमों आदिका पालन न करें वहाँ अपवाद हो । इस प्रकार नये परवाने जारी करनेकी व्यवस्था रंग- भेदके आधारपर कोई अन्यायपूर्ण कानून बनाये बिना नियमित की जा सकेगी।
मेरा संघ सादर निवेदन करता है कि अचल सम्पत्ति के स्वामित्वकी मनाही जितनी अकारण है उतनी ही अन्यायपूर्ण भी । और उपनिवेशके मुट्ठी भर भारतीयोंको स्वतन्त्रतापूर्वक जमीन खरीदने से रोकना स्पष्ट रूपमें ब्रिटिश परम्पराओंके विपरीत है ।
मेरे संघने सरकारके उस वचनके सम्बन्धमें कुछ नहीं कहा है, जो उसने ४० वर्ष पहले दिया था, क्योंकि उसकी नम्र सम्मतिमें ब्रिटिश भारतीयोंका मामला अपनी पात्रताके आधारपर ही बहुत जोरदार है । परन्तु मैं कह सकता हूँ कि यदि सर चार्ल्स नेपियरकी १८४३ की घोषणा के समय स्थिति आजसे भिन्न थी, तो भी जब स्वर्गीय लॉर्ड रोजमीड और स्वर्गीय लॉर्ड लॉक और इसी तरह लॉर्ड मिलनरने बोअर-राज्यके दिनोंमें ब्रिटिश भारतीयोंके पक्षमें जोरदार कोशिशें की थीं और स्वर्गीय राष्ट्रपति क्रूगरके अतिक्रमणसे उनके अधिकारोंकी थोड़ी या बहुत सफलताके साथ रक्षा की थी, उस समय वह इतनी भिन्न नहीं थी । जब लड़ाई छिड़ी और स्वर्गीया सम्राज्ञीके मन्त्रियोंने यह घोषणाकी कि ब्रिटिश भारतीयों पर लगाई गई निर्योग्यताएँ भी लड़ाईका एक कारण है, तब भी परिस्थिति आजसे बहुत भिन्न नहीं थी ।
इसलिए मेरा संघ महसूस करता है कि इन तथ्योंकी उपेक्षा की गई है और इस प्रकार भारतीय समाजके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं किया गया। मेरे संघका सम्मानपूर्ण निवेदन यह है कि ब्रिटिश भारतीय सम्राट्की प्रजा हैं और ट्रान्सवालके कानून- पालक और शान्तिप्रिय निवासी