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पत्र : "आउटलुक" को

भारतीय नेटालके उत्तरी तटपर जाते हैं। उसका विकास या तो भारतीय मजदूरोंसे होगा या बिलकुल होगा ही नहीं। नेटालके लोगोंने सोचनेमें ज्यादा बुद्धिमानी की है। उन्होंने भारतीय मजदूरोंके जरिये तटवर्ती जमीन पर खेती करानेमें पसोपेश नहीं किया। और, याद रहे, उत्तरी तटपर भी जो बड़ी-बड़ी महलों जैसी इमारतें हैं और जिनमें गोरे लोग रहते हैं, पूर्ण रूपसे भारतीय प्रवासियोंकी ही मददसे बनी हैं, और वे उन्हींके मालिकोंकी सम्पत्ति भी हैं। इस तरह, नेटालका उदाहरण पूर्णतः भारतीयोंके पक्षमें है और जिन "आर्थिक कारणों" पर श्री हिल्स इतना जोर देते हैं, उन्हींसे नेटालके लोग भारतीयोंकी सहायताका आश्रय लेनेके लिए विवश हुए हैं।

फिर, श्री हिल्स यह कहने में भी भूल करते हैं कि "पिछली सरकारके अधीन कानून द्वारा, जैसी कि उसकी १५ वर्ष तक व्याख्या की जाती रही थी, एशियाई बस्तियोंमें ही रहनेके लिए बाध्य थे" यह तो एक सुविदित तथ्य है कि पिछली सरकारके शासनमें भारतीय पूर्णतः दण्ड-भयसे मुक्त होकर बस्तियोंके बाहर रहते थे और इस तरह रहनेके कारण ही वर्त्तमान सरकारको उन्हें बेदखल करना कठिन हो रहा है। यह सच है कि उस समय उन्हें ब्रिटिश संरक्षण प्राप्त था, इसलिए अब उसे वापस नहीं लिया जा सकता। फिर यह भी याद रखना चाहिए कि बोअरोंके शासन में भारतीयों के प्रवासपर कोई रुकावट नहीं थी। इसके विपरीत आज, जैसा कि मुख्य परवाना-सचिव ने बताया है, केवल उन भारतीयोंको उपनिवेशमें पुनः प्रवेशकी इजाजत दी जाती है जो युद्धके पहले देशमें बसे हुए थे—और सो भी बहुत पूछताछ और विलम्बके बाद। यद्यपि श्री हिल्स सामान्य गोरी आबादी और उसके कल्याणकी बातें करते हैं, अपने सिद्धान्तोंको लागू करनेमें वे सिर्फ भारतीयोंके व्यापारिक परवानोंका ही खयाल करते हैं। तो क्या उनकी आपत्ति केवल भारतीय व्यापारियोंके बारेमें ही है? श्री हिल्स यह मान कर फिर गलती करते हैं कि दक्षिण आफ्रिकी रंगदार लोगोंको तो परवाने देनेसे इनकार किया जाता है, जबकि वे भारतीयोंको बेरोकटोक दे दिये जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालयके निर्णयके अन्तर्गत सरकार किन्हीं रंगदार लोगोंको, रंगदार होनेके आधार पर, परवाने प्राप्त करनेसे रोक ही नहीं सकती। और अगर श्री हिल्सकी आपत्ति अन्ततः—जैसी कि वह दिखलाई पड़ती है उपनिवेशका व्यापार पूर्णतः या अधिकांशमें भारतीयोंके हाथोंमें जाने देनेके विरुद्ध है, तो उनके साथ सहानुभूति व्यक्त करनेमें बहुत कठिनाई नहीं है; और न आउटलुकके सम्पादकने यह सुझाव दिया है कि इस प्रकारकी प्रतिस्पर्धाका साधारण कानून द्वारा विनियमन न किया जाये। परन्तु भारतीय व्यापारका इस प्रकारसे विनियमन करना और हर प्रकारसे हैरान करनेवाले कानून बना-बनाकर भारतीयोंको उपनिवेश से खदेड़ देना दो भिन्न बातें हैं। एकके साथ, जबतक कि निहित स्वार्थों को हानि नहीं पहुँचाई जाती और भारतीयोंको, भारतीय होनेके नाते ही, परवाने देने से इनकार नहीं किया जाता, प्रत्येक समझदार उपनिवेशी पूरी तरहसे सहमत रहेगा। परन्तु, भारतीयोंको ऐसे कार्योंसे, जैसे सड़कोंकी पटरियों पर चलनेसे, जमीन-जायदाद खरीदनेसे, कड़े म्यूनिसिपल विनियमोंके अनुसार निवास करनेसे, या जहाँ वे चाहें वहाँ मसजिद बनानेसे रोकना शायद ही न्याय और औचित्यके अनुकूल है। अगर ऐसे प्रतिबन्धों का मूल रंगभेद-जनित नहीं है तो वे निरर्थक हैं। और यह शंकाजनक है कि इस प्रकारके द्वेष भावकी लपटोंको उत्तेजित करनेवाले लोग आगामी पीढ़ियोंका कोई भला कर रहे हैं। हकीकतें जैसी हैं, वैसी मंजूर करनी चाहिए। भारत भी ट्रान्सवालके समान ही ब्रिटिश साम्राज्यका भाग है। इन दोनोंके बीच आदान-प्रदानकी नीति तो होनी ही चाहिए, मैंगर साथ ही, गैरजरूरी तौरपर उन लोगों की भावनाओंको ठेस पहुँचानेवाली कोई कार्रवाई न की जानी चाहिए जो आखिरकार तो, उसी सम्राटकी प्रजा हैं, जिसकी प्रजा वे स्वयं हैं, और जिनकी विशिष्ट परम्पराएँ हैं तथा जो एक आश्चर्यजनक प्राचीन सभ्यताके उत्तराधिकारी हैं।