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४६. इंग्लैंड और रूस
एक तुलना

श्री स्क्राइनने ७ जुलाई, १९०३ को इम्पीरियल इन्स्टिट्यूटमें "इंग्लैंड और रूस द्वारा एशियाइयोंपर शासन" विषयपर एक मनोरंजक भाषण दिया था, जिसे ईस्ट ऐंड वेस्टने अपने अक्टूबरके अंकमें छापा है। इस विषयमें हम दक्षिण आफ्रिकाके लोगोंको बौद्धिक ही नहीं, बल्कि उससे कुछ अधिक दिलचस्पी है। अनन्त एशिया और उसकी हजारों जातियोंपर, जिनमें बहत-सी बातोंमें जमीन-आसमानका अन्तर होते हए भी, कुछ ऐसी समानता है, जिसकी व्याख्या नहीं हो सकती, इन दोनोंमें से किसी एकके शासनकी सफलता या असफलताके बारेमें अन्तिम निर्णय देना राष्ट्रोंके इतिहासमें अभी बहुत जल्दी करना होगा। वक्ताने कहा था:

रूसी सम्राट्—जार—के कई करोड़ बौद्ध और मूर्ति-पूजक प्रजाजन हैं और २०,७०,००,००० हिन्दू भारत-सम्राट‍्की सत्ता स्वीकार करते हैं, किन्तु पूर्वमें केवल इस्लाम इन दोनोंके अधिकारियोंके सम्मुख एक जैसी समस्याएं प्रस्तुत करता है। … ब्रिटिश भारतमें नबीके कमसे-कम ५,३८,०४,००० अनुयायी हैं। सन् १८९७ की जनगणनाके अनुसार, रूसके महान्, गौर वर्णीय जारके शासनाधीन मुसलमानोंको संख्या १,८७,०७,००० है। … इसके विपरीत, मैं कह दूं कि, तुर्कीमें खलीफाके प्रजाजन, जो उनका धर्म मानते हैं, १,८५,००,००० से कम है।

इस प्रकार यह प्रत्यक्ष है कि श्री स्क्राइनने अपनी तुलनाकी सुनिश्चित मर्यादाएँ बना ली है, इसलिए यद्यपि उनके भाषणका व्यापक अर्थ लगानेकी गुंजाइश नहीं है, फिर भी वह पठनीय है। भारतीय शासनको कहीं "उदार निरंकुशता" का नाम दिया गया है। यद्यपि इन शब्दोंमें परस्पर विरोधाभास है; किन्तु कदाचित् वे भारतमें अंग्रेजी राजकी अवस्थाको बहुत कुछ यथार्थ रूपमें व्यक्त करते हैं। जबतक अंग्रेजी राजकी प्रभुतामें हस्तक्षेप नहीं होता, तबतक भारतके लोगोंके प्राचीन कालसे चले आते हुए रीति-रिवाजोंका लिहाज किया जाता है और उन्हें अछूता रहने दिया जाता है। उनको अपने देशके मामलोंमें न्यूनाधिक मोटे तरीकेका स्वशासन प्राप्त है। सन् १८५७[१] की ऐतिहासिक घोषणा और उसके बाद एकके बाद दूसरे वाइसरायोंकी घोषणाएँ बताती हैं कि उनके पीछे जाति, रंग और धर्मके सब भेदभावोंको समाप्त करने और साम्राज्यके समस्त प्रजाजनोंको समान अधिकार देनेका इरादा है। इसलिए यदि स्वयं भारतमें इन घोषणाओंपर पूरा अमल नहीं हो पाता तो इसका कारण यह नहीं कि अधिकारी उन्हें पूरा करना नहीं चाहते, बल्कि यह है कि व्यवहार में ब्रिटिश शासनकी सर्वोच्चताके सम्बन्धमें अनुचित भय या शासितोंके सम्बन्धमें अनिश्चित सन्देहसे उनके हाथ रुकते हैं। इसलिए अस्थायी स्खलनोंके बावजूद यह आशा करनेके लिए पर्याप्त आधार है कि ज्यों-ज्यों लोगोंकी स्वाभाविक राजभक्तिकी परीक्षाके अवसर आते जायेंगे त्यों-त्यों सन्देह या भय धीरे-धीरे विलुप्त होते जायेंगे और उनका स्थान विश्वास लेता जायेगा। दक्षिण आफ्रिकाकी अभी हालकी लड़ाई और चीनके अभियानसे भारतीय शासकोंके मनपर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा है और भारतीय दृष्टिकोणसे

  1. प्रत्यक्षतः १८५८ के बजाय भूलसे लिखित।