उनके द्वारा अप्रत्यक्ष रूपमें बहुत हित हुआ है। किन्तु श्री स्क्राइनने जिस मुख्य बातपर जोर दिया है वह राजनीतिककी अपेक्षा धार्मिक है। उनका तर्क यह है कि लाखों-करोड़ों मानवोंसे व्यवहार करते समय धर्मोंकी जो सहिष्णुता इतनी आवश्यक प्रतीत होती है वह शासकोंमें दिखाई नहीं पड़ती। वे कहते हैं:
ईसाइयों और मुसलमानोंके भौतिक संघर्षसे उत्पन्न तीव्र कटुताके कारण हम प्रतिस्पर्धी धर्मके प्रति थोड़े अन्यायी हो गये हैं। स्पेनमें मूअरोंके शासनकी यश-गाथाओंसे यह असंदिग्ध रूपसे सिद्ध हो जाता है कि इस्लामके सिद्धान्त बौद्धिक और भौतिक उन्नतिके विरोधी नहीं हैं। वस्तुतः इस्लाममें कई बातें ऐसी हैं जो हमें उसका आदर करनेके लिए विवश करती हैं। उसके एकेश्वरवाद और सब मानव प्राणियोंके भ्रातृत्वके आदर्श केवल कल्पनाशील और विचारशील लोगोंमें विकसित हो सकते थे। वे आत्माको पतित करनेवाले उस भौतिकवाद और विवेकहीन धन-पिपासाके विरुद्ध शक्तिशाली प्रतिरोधक हैं, जो पश्चिमी यूरोप और अमेरिकामें ज्ञात सभ्यताके स्वरूपको नष्ट करनेका भय पैदा कर रहे हैं।
इस उत्कृष्ट साक्षीमें हम पश्चिममें उमरखय्यामकी रचनाओंको प्राप्त अनुपम सफलताकी बात और जोड़ सकते हैं। जब हम यह लिख रहे हैं तब नबीके लाखों करोड़ों अनुयायी कठिनाइयों और कष्टोंके बावजूद स्वेच्छासे पूरे एक मासके रोजे रख रहे होंगे। जो लोक-समुदाय किसी भौतिक या प्रत्यक्ष लाभको खातिर नहीं, बल्कि बहुत ही अप्रत्यक्ष और विशुद्ध आध्यात्मिक लाभकी खातिर ऐसी कठिनाइयाँ सहन कर सकता है, उसके धर्ममें कोई ऐसी बात जरूर होगी जो प्रशंसनीय है और उससे ऐसा करा सकती है। ब्रिटिश शासनके लाभ गिनानेके बाद श्री स्क्राइन आगे कहते हैं:
सत्य मुझे उन रंगोंमें चित्रांकनके लिए विवश करता है, जिनसे पूर्वमें ब्रिटिश साम्राज्यका वह आश्चर्यजनक विकास फीका पड़ जाता है। कुल मिलाकर हमारा शासन कदाचित् संसारमें सर्वोत्तम और सबसे अधिक सच्चा है; किन्तु वह निष्ठुर और फीका है। उससे अभीतक साहूकारी-दूकानकी गंध आती है। वह भारतीयोंकी सराहक प्रवृत्तिके, जो उनके स्वभावका एक रक्षक अंग है, अनुकूल पड़ता है। किन्तु उनके हृदयको स्पर्श नहीं करता। इसमें दोष कुछ हमारा भी है। हमारी जातिमें कल्पनाशीलताको कमी है, इसीलिए हम मानसिक दृष्टिसे अपने-आपको दूसरे लोगोंकी स्थितिमें रखने या अपने-आपसे यह प्रश्न पूछनेमें असमर्थ हैं कि, हम स्वभावतः जो रुख इख्तियार करते हैं यदि वही रुख वे इख्तियार करें तब हम उसे कैसा समझेंगे। यदि अंग्रेजोंको सहानुभूतिके दिव्य गुणका अपना हिस्सा इससे ज्यादा मिला होता तो दक्षिण आफ्रिकी युद्ध ही न हुआ होता, हमारे साधन यों कुचले न गये होते और हमारा ध्यान अधिक महत्त्वपूर्ण बातोंकी ओरसे न हटा होता।
हमारे पाठक तुरन्त समझ जायेंगे कि पिछले दो वाक्य दक्षिण आफ्रिकापर बहुत ज्यादा लागू होते हैं। यदि गोरे उपनिवेशी अपने-आपको कानूनन निर्योग्य बनाये गये ब्रिटिश भारतीयोंके स्थानमें रखकर सोच सकते तो उन्हें तुरन्त पता चल जाता कि ये निर्योग्यताएँ कितनी अनुचित हैं। श्री स्क्राइनने रूसी शासनका निम्नलिखित चित्र खींचा है: